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सपिण्ड सगोत्रों की सन्तान एवं विधवाओं का उत्तराधिकार
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मिताक्षरा द्वारा पिता, पितामह एवं प्रपितामह के वंश में उल्लिखित 'सन्तान' शब्द कुछ कठिनाई उत्पन्न करता है । हमने पहले ही देख लिया है कि बम्बई के उच्च न्यायालय के मत से बद्धक्रमता भाई के पुत्र ( पिता के पुत्र के पुत्र, अर्थात् पिता के दो वंशजों) के पश्चात् समाप्त हो जाती है, किन्तु भारत के अन्य क्षेत्रों में यह भाई के पुत्र के पुत्र ( अर्थात् पिता के तीन वंशजों) के उपरान्त समाप्त हो जाती है । 'मिताक्षरा ने ' पितामह एवं प्रपितामह की शाखा में केवल दो ही वंशजों को स्पष्ट रूप से रखा है। सामान्य नियम यह है कि व्यक्ति या उस पूर्वज को छोड़कर, जिससे गणना आरम्भ होती है, प्रत्येक शाखा के छः वंशजों तक सपिण्ड सम्बन्ध प्रसारित रहता है । और आगे एक सामान्य नियम यह भी हैं कि सन्निकटतर शाखा दूरतर लोगों को छोड़ देती है ( यथा मिताक्षरा ने स्पष्ट रूप से पितामह, उसके पुत्र एवं पौत्र को प्रपितामह, उसके पुत्र एवं पौत्रों से पहले रखा है ) । प्रश्न यह है--क्या किसी सन्निकटतर शाखा के तीसरे, चौथे, पाँचवें या छठे वंशज किसी दूर शाखा के प्रथम या द्वितीय वंशज को छोड़ देंगे ? दूसरे शब्दों में, क्या पितामह का पौत्र प्रपितामह के पुत्र या पौत्र के पूर्व ही अधिकार पायेगा या पितामह का छठा वंशज प्रपितामह के पुत्र के पूर्व अधिकार ग्रहण करेगा ? इस विषय में तीन मत हैं-- (१) 'स्मृतिचन्द्रिका' के कुछ शब्दों के आधार पर ऐसा कहा गया है कि प्रत्येक शाखा में दो वंशजों उपरान्त दूरतर शाखा की ओर बढ़ना होता है और उस शाखा के दो वंशजों के उपरान्त सन्निकटतर शाखा के तीसरे से लेकर छठे वंशज तक लौट आना पड़ता है; (२) प्रत्येक शाखा में पहले तीन पीढ़ियों तक जाना होता है, क्योंकि मिताक्षरा के अनुसार 'पुत्र' शब्द में तीन पुरुष वंशज आ जाते हैं; (३) किसी आगे की दूरतर शाखा में चढ़ने के पूर्व प्रत्येक शाखा के छः वंशजों की परिसमाप्ति आवश्यक है ( क्योंकि सपिण्ड सम्बन्ध छ: पीढ़ियों तक प्रसारित रहता है) ।
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एक अन्य प्रश्न उठता है—क्या सगोत्र सम्बन्धियों की विधवाएँ, यथा-पुत्र की विधवा, भाई की विधवा, विमाता या विधवा चाची, उत्तराधिकार के लिए 'गोतजाः' कहलाती हैं ? 'दायभाग' के अन्तर्गत एवं 'मिताक्षरा' के अन्तर्गत, बम्बई के सम्प्रदाय को छोड़कर, सारे भारत में गोत्रज सपिण्डों की विधवाएँ उत्तराधिकार बिल्कुल नहीं पातीं, क्योंकि सभी लेखकों के मत से स्त्रियाँ तब तक उत्तराधिकार नहीं प्राप्त कर सकतीं जब तक कि स्मृति वचन इस विषय में स्पष्ट न हों । बम्बई सम्प्रदाय में स्थिति कुछ और ही है । 'मिताक्षरा' एवं ' मयूख' के अनुसार पत्नियाँ विवाहोपरान्त पति के गोत्र में प्रविष्ट होती हैं और उनकी सपिण्ड के रूप में घोषित हो जाती हैं । बालम्भट्टी ने घोषित किया है कि पुत्र की विधवा पितामह के पूर्व ही उत्तराधिकारिणी हो जाती है। इन्होंने स्त्रियों को भी 'गोत्रजाः' शब्द के अन्तर्गत रखा है । जब गोत्रज शब्द समान गोत्र का वाचक हो गया तो न केवल वे, जो गोत्र में उत्पन्न हुई थीं, 'गोत्रजाः ' कहलाने लगीं, प्रत्युत वे भी जो विवाहोपरान्त गोत्र में प्रविष्ट हुईं, 'गोत्रजाः' कही जाने लगीं । इतना ही नहीं; यह तर्क उपस्थित किया गया कि जब पितामही या प्रपितामही गोत्रज रूप में उत्तराधिकार पाती हैं तो अन्य गोत्रजों की विधवाएँ इस अधिकार से वंचित क्यों की जायें ? बम्बई प्रान्त में अंग्रेजी काल से ही गोत्रज सपिण्ड स्त्रियाँ (यथा--पुत्र, भाई एवं चाचा की विधवाएँ) उत्तराधिकार के लिए योग्य समझी जाती रही हैं । वे स्वामी की विधवा या माता या पितामही के समान सीमित अधिकार पाती हैं । उन्हें यह अधिकार स्थानीय प्रयोग एवं परम्परा के अनुकूल मिला है, न कि स्मृति वचनों के आधार पर । ये गोत्रज सपिण्ड विधवाएँ किसी भी प्रकार के बन्धु के पूर्व ही उत्तराधिकार पाती हैं। सन् १६३७ के उपरान्त व्यक्ति की अपनी विधवा, उसके पूर्व मृत पुत्र की विधवा एवं पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा उसके पुत्र या पुत्रों के साथ ही सारे भारत में उतराधिकार पाती रही हैं ।
समानोवक - मिताक्षरा के अनुसार गोत्रज या तो सपिण्ड हैं या समानोदक हैं। 'समानोदक' शब्द का एक पारिभाषिक अर्थ है | मनु ( ५।६० ) के मत से सपिण्ड सम्बन्ध सातवें पुरुष तक समाप्त हो जाता है; समानोदक का
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