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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मिताक्षरा का कथन है कि पितामह, सपिण्ड एवं मृत के समानोदक लोग गोत्रज हैं। इसने आगे कहा है कि गोत्रजों में सर्वप्रथम स्थान पितामही को मिलता है और उसके उपरान्त ही पितामह आता है। इसने गोत्रज (गोत्र में उत्पन्न) का अन्वय समानगोत्र (उसी के गोत्र वाले) के अर्थ में करके कहा है-“सन्तान के अभाव में उत्तराधिकारी क्रम से ये हैं--पितामही, पितामह,चाचा एवं उसके पुत्र ; पितामह की सन्तान के अभाव में क्रम से प्रपितामही,प्रपितामह, उसके पुन एवं पौत्र उत्तराधिकारी होते हैं । इसी भांति एक ही गोत्रवाले सपिण्ड लोग सात पीढ़ियों तक आते हैं । 'मिताक्षरा के मत से सपिण्ड-सम्बन्ध सात (मत को लेकर गिनते हए) पीढ़ियों तक चला जाता है। अतः उत्तराधिकार के लिए स्वामी (मत व्यक्ति जिसके धन के उत्तराधिकार का प्रश्न है) के सपिण्ड ये हैं--(१) स्वामी की पुरुष पीढ़ी में छः वंशज, (२) उसकी पुरुष पीढ़ी में छः पूर्वज एवं प्रथम तीन की पत्नियां (माता, पितामही एवं प्रपितामही)तथा सम्भवतः अन्तिम तीन की पत्नियाँ भी तथा (३) उसके पुरुष पूर्वजों में प्रत्येक के छ: पुरुष वंशज । इन लोगों के अतिरिक्त, व्यक्ति की पत्नी एवं पुत्री भी उसके सपिण्ड के रूप में ली जाती हैं और दोहित, जो कि भि है, गोत्रज सपिण्ड उत्तराधिकारियों में ऊंचा स्थान प्राप्त करता है। मिताक्षरा के अन्तर्गत भी (बम्बई एवं मद्रास के सम्प्रदायों को छोड़कर) गोत्रज सपिण्ड रूप में कोई स्त्री (पाँच के अतिरिक्त जिनके नाम ऊपर दिये गये हैं) उत्तराधिकार नहीं पाती। बम्बई में बहिन (सगी या सौतेली) गोत्रज रूप में व्य० मयूख द्वारा वर्णित है (यद्यपि मिताक्षरा इस विषय में मौन है) और उसे पितामही के पश्चात् ही स्थान मिला है। व्य० मयूख ने मन (६।१८७) के इस कथन का सहारा लिया है “सन्निकट रक्त-सम्बन्धी को रिक्थाधिकार प्राप्त होता है", और उसका आगे कथन है--"बहिन भी गोत्रज है, क्योंकि वह अपने मृत भाई के गोत्र से ही उत्पन्न होती है। किन्तु वह मृत की सगोत्र नहीं है, अतः उसे यहाँ धनग्रहण के योग्य नहीं माना गया है।"३७ यहाँ पर व्य० मयूख ने गोत्रज का शाब्दिक अर्थ लेकर अपना काम निकाला है। किन्तु यह आभासवादी तर्क मात्र है। विधवा पत्नी एवं माता गोत्रज (एक ही गोत्र में उत्पन्न होने के अर्थ में) नहीं हैं किन्तु विवाहोपरान्त वे पतियों के गोत्र में चली आती हैं और सगोत्र मान ली जाती हैं। इसी तर्क के आधार पर आगे पुत्र की कन्या, भाई की कन्या, पिता की बहिन तथा अन्य स्त्रियाँ, जो मत के कुल में ही उत्पन्न होती हैं, उसके गोत्रज के रूप में ली जाती हैं (किन्तु वे सगोव नहीं हो सकती, क्योंकि विवाहोपरान्त वे अपने पतियों के गोन में चली जाती हैं।) । किन्तु “अन्य स्त्रियाँ" व्य० मयूख द्वारा भी गोत्रज रूप में स्पष्ट रूप में नहीं उल्लिखित हैं। मिताक्षरा के अन्तर्गत उत्तराधिकारियों का अनक्रम यों है--सगा भाई, सौतेला भाई, सगे भाई का पुत्र, मौतले भाई का पुत्र, पितामही, बहिन (सगी को सौतेली से वरीयता प्राप्त है), पितामह । व्य० मयूख के मत से अनुक्रम कुछ भिन्न है--सगा भाई एवं मृत सगे भाइयों के पुत्र,सगे भाई का पुत्र, पितामही, सगी बहिन, सौतेला भाई, सौतेली बहिन, पितामह । अविवाहित बहिन को विभाजन के समय विवाहव्यय का भाग मिलता है। देखिये नारद (दायभाग, १३), विष्णु० (१८॥३५), मनु (६११८) एवं याज्ञ० (२।१२४) । मद्रास में बहिन को बन्धु माना गया है। सन् १६२६ के कानून ने इसमें परिवर्तन कर दिया है। 'दायभाग' के अन्तर्गत बहिन को सपिण्ड रूप में बड़ा स्थान प्राप्त था किन्तु शेष भारत में वह बन्ध रूप में घोषित रही है । सन् १६२६ के कानून से 'दायभाग में अन्तर नहीं पड़ा है। ३७. तदभावे भगिनी।......तस्या अपि भ्रातगोत्र उत्पन्नत्वेन गोत्रजत्वाविशेषाच्च,सगोत्रता परं नास्ति।न च सात्र धनग्रहणप्रयोजकत्वेनोक्ता । व्य० मयूख (पृ० १४३) । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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