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________________ पिण्डलेप-भोक्ता सकृल्यों का उत्तराधिकार स्वामी के कुल में उत्पन्न हुई हैं और न उसके सम्बन्ध से उदित हुई हैं, जैसा कि बहिन का पुत्र या फुफेरा भाई होता है। इसके अनुसार याज्ञवल्क्य ने 'बन्धु' शब्द मामा आदि के लिए प्रयुक्त किया है, और उन्हें उत्तराधिकार पाने वाले सपिण्डों में रखा है। क्योंकि वे स्वामी के कुल में नहीं उदित हुए हैं और न उनका गोत्र ही समान है, अतः मामा आदि पितृकुल के अन्य वंशजों के, जिनमें प्रपितामह से लेकर उसकी पुत्री के पुत्र भी सम्मिलित हैं, उपरान्त ही आते हैं। यह प्रकट हो गया कि दायभाग के अंतर्गत पाँच स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री को उत्तराधिकार नहीं मिलता और इसका फल यह हुआ कि व्यक्ति की अपनी पुत्री या पुत्री की पुत्री उत्तराधिकार नहीं पा सकती, जब कि दूर के सम्बन्धी, यथा पिता के पिता की बहिन के पुत्र को उत्तराधिकार मिलता है। यही स्थिति मिताक्षरा के अन्तर्गत भी है और सारे भारत में (बम्बई एवं मद्रास के कुछ भागों को छोड़कर, जिसके विषय में हम आगे पढ़ेंगे) यह प्रथा लागू रही है। __अपने तीन पित-पूर्वजों को पिण्ड देने के उपरान्त हाथ में पिण्डों का जो अवशेष बच रहता है वह प्रपितामह से ऊपर के पूर्वजों के लिए कुश पर छिड़का जाता है (मनु ३।२१६)। इसी प्रकार पौत्र के उपरान्त तीन पुरुष वंशज पिण्डलेप (पिण्ड का अवशेष जो हाथ में लगा रहता है) स्वामी को देते हैं । 'बौधायन' एवं 'दायभाग' (११।१।३८) द्वारा ये दूर के तीन पित-पूर्वज एवं तीन पुरुष वंशज (जिन्हें बौधायनधर्मसूत्र १।५।११४ में 'विभक्त दायाद' कहा गया है) सकल्य कले गये हैं। दायभाग के मत से सपिण्डों के अभाव में सकूल्य लोग उतराधिकार पाते हैं। जिस प्रकार व्यक्ति मत होने के उपरान्त अपने पितृ-पूर्वजों को दिये गये पिण्डदान में सम्मिलित रहता है, उसी प्रकार वह चौथी से छठी पीढ़ी तक के वंशजों द्वारा दिये गये पिण्डले में भी सम्मिलित रहता है। दायभाग का कथन है कि सपिण्डों एवं सकुल्यों में यह अन्तर केवल उत्तराधिकार को लेकर ही है। किन्तु सूतक मनाने की अवधियों में सपिण्ड एवं सकुल्य दोनों मनु (५।६०) एवं 'मार्कण्डेयपुराण' (२८।४) द्वारा सपिण्ड कहे गये हैं। मनु (६।१८७) के मत से सपिण्डों के अभाव में सकुल्य उत्तराधिकार पाते हैं, किन्तु विष्णु० (१७।६-११) के अनुसार बन्धुओं के अभाव में सकुल्य उत्तराधिकार पक्षण करते हैं । ३६ लगता है, विष्णु ने सपिण्ड के अर्थ में ही बन्धु शब्द का प्रयोग किया है । नारद (दायभाग,५१) का कथन है कि पुत्रियों एवं सकुल्यों के अभाव में बान्धव एवं सजातीय लोग उत्तराधिकार पाते हैं। यहाँ, ऐसा लगता है कि सकल्य एवं बान्धव का प्रयोग गोत्रज एवं बान्धव के अर्थ में किया गया है जैसा कि याज्ञवल्क्य ने किया है। बालंभट्टी ने गोत्रज एवं सकुल्य को पर्यायवाची माना है। दायभाग सकुल्यों के विषय में असंगत है, क्योंकि एक स्थान (११। ६।१५एवं २३) पर उसने समानोवकों को सकुल्यों में रखा है, तो दूसरे स्थान (१११६।२१-२२) पर उसने सकल्य की वैसी परिभाषा दी है जैसा कि ऊपर दिया जा चुका है। 'मिताक्षर।' ने 'दाय भाग' के सकुलों को गोत्रज सपिण्डों के अन्तर्गत ही माना है। ३६. पिण्डलेपभुजश्चान्ये पितामहपितामहात् । प्रभृत्युक्तास्त्रयस्तेषां यजमानश्च सप्तमः । इत्येवं मुनिमिः प्रोक्तः सम्बन्धः साप्तपौरुषः ।। मार्कण्डेयपुराण (२८:४-५) । और देखिये वायभान (११।१।४१) एवं ब्रह्मपुराण (२२०८५-८६) । विष्णुध० सू० (१७१६-११)में आया है-- तदमावे मातगामि । तदभावे बन्धुगामि । तदभावे सकुल्यगामि ।' विष्णुधर्मसूत्र को अपरार्क (पृ० ७४१) एवं वि० र० ( पृ०५६५) ने इसी प्रकार पढ़ा है । व्य० प्र० (पृ०५१०) का कथन है कि विष्णु० में 'बन्धु' एवं 'सकुन्य' 'सपिगड' एवं 'सगोत्र' के लिए आगे हैं। और देखिये दायतत्त्व (पृ. १८६), वायभाग (११।११५, पृ० १५१), व्य० प्र० (पृ० १४२) तथा मिता० (याज्ञ०२।१३६) जहाँ दूसरे ढंग की बातें दी हुई हैं। ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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