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धर्मशास्त्र का इतिहास का पिता उसका नाना है, अतः वह स्वामी से सपिण्ड रूप से सम्बन्धित है। पिता की बहिन (फूफी) का पुत्र स्वामी के पितामह को जो उसका (अर्थात् फूफी के पुत्र का) नाना होता है, पिण्ड' देता है । मामा स्वामी के कुल से उदित नहीं होता, किन्तु वह अपने उस पिता को पिण्ड देता है जो कि मृत स्वामी का नाना होता है। अतः मामा या उसका पुत्र या पौत्र उस पिण्ड से, जो नाना या परनाना (नाना के पिता) को दिया जाता है, सम्बन्धित है और वह इस प्रकार मृत स्वामी का सपिण्ड है । मौसी का पुत्र अपनी माता के पिता को पिण्ड देता है जो स्वयं स्वामी की माता का पिता है, अतः मौसी का पुत्र स्वामी का सपिण्ड है। उसके द्वारा दिया गया मातृपक्ष को पिण्डदान गौण एवं हीन है। इसके अतिरिक्त स्वयं अपनी माता, पितामही, प्रपितामही, अपने-अपने पतियों से (पूर्वजों को दिये गये पिण्ड के कारण) सम्बन्धित हैं, और यही बात मातृपक्ष के पूर्वजों की पत्नियों के विषय में भी लागू है।
इस प्रकार सपिण्ड की परिभाषा देने से गोत्रज एवं बन्धु का अन्तर मिट-सा जाता है। याज्ञ० (२।१३६) ने स्पष्ट कहा है कि गोत्रजों के अभाव में ही किसी बन्धु को उत्तराधिकार प्राप्त होता है । 'दायभाग' ने बहिन के पुत्र को भाई के पौत्र के पश्चात् ही एवं पितामह (अर्थात् एक समीप के गोत्रज पूर्वज) के पूर्व रखा है । पितामह वास्तव में शाब्दिक अर्थ में गोत्रज है और बहिन का पुत्र गोत्रज नहीं है । जब दायभाग ने बहिन के पुत्र को स्वामी के कुल से उदित माना है और उसे उस कुल का गोत्रज नहीं माना है, तो इससे सम्पूर्ण भारत में प्रचलित व्यवहार की हत्या सी हो जाती है। भारत का कोई भी साधारण व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि उसका भानजा (बहिन का पुत्र) और फुफेरा भाई (उसके पिता की बहिन का पुत्र) उसके कुल में उत्पन्न है। दायभाग ने याज्ञवल्क्य के गोत्रज शब्द पर वाग्जाल खेला है, उसे एकवचन में (गोत्रज:) पढ़ा है, किन्तु 'मिताक्षरा' ने उसे बहुवचन में (गोत्रजाः) लिया है। 'मिताक्षरा' के अन्तर्गत भानजा बन्धु मात्र है और वह चाचा या उसके पुत्र या चचेरे पितामह या अन्य गोत्रज के रहते उतराधिकारी नहीं हो सकता। दायभाग ने इस प्रकार याज्ञवल्क्य के वचन का उल्लंघन किया है और बहुत से गोत्रजों को निकट का उत्तराधिकारी माना है । इसने मनु (६।१८६-१८७) के वचन को मुख्य माना है और याज्ञ० (२।१३५-१३६) के वचन को गौण ।
निम्न रेखाचित्रों से धार्मिक योग्यता का सिद्धान्त स्पष्ट हो जायगा। एक व्यक्ति उन लोगों का सपिण्ड कह लाता है जिनके लिए जीवित रहते वह पिण्डदान करता है; वह उनका भी सपिण्ड है जो उसके मृत होने पर उसे पिण्ड देते हैं (यथा-~-उसके तीन पुरुष वंशज, उसका दौहिन , उसके पुत्र की पुत्री का पुत्र एवं उसके पौत्र की पुत्री का पुत्र); तथा वह उसका भी सपिण्ड है जो उसके पूर्व जों को, जिन्हें उसे पिण्ड देना पड़ता है, पिण्ड देता है, अर्थात् जो उसके पितृपक्ष के तीन पूर्वजों तथा मातृपक्ष के तीन पूर्वजों को पिण्ड देता है-ये सभी उसके सपिण्ड हैं । अन्तिम तीन दलों में चार उपदल हैं--उपदल संख्या १ में वे आते हैं जो अपने उन पितरों को पिण्ड देते हैं जो स्वयं स्वामी के अपने पूर्वज हैं; उपदल संख्या २ में वे लोग हैं जो अपने उन तीन मातृ-पक्ष के पितरों को पिण्ड देते हैं जिनमें सभी या कुछ लोग स्वामी के अपने पूर्वज हैं, जिनके लिए वह स्वयं पिण्डदान करता है; उपदल संख्या ३ में वे आते हैं जो अपने उन पूर्वजों को पिण्ड देते हैं जिनमें सभी या कुछ स्वामी के मातृ-पक्ष के पूर्वज हैं; उपदल संख्या ४ में वे लोग हैं, जो अपने उन मातृपक्ष के पूर्वजों को पिण्ड देते हैं जो स्वयं स्वामी के मातृपक्ष के पूर्वज हैं। इन सभी उपदलों में कम-से-कम नौ व्यक्ति हैं। यदि स्वामी के कई भाई, बहिनें, चाचा एवं मौसियाँ आदि हैं तो सपिण्डों की सम्भव संख्या और बड़ी हो जायगी । मिताक्षरा के अन्तर्गत उपदल २ से ४ तक के उत्तराधिकारी लोग बन्धु कहलाते हैं और (मिताक्षरा के अनुसार) उन्हें गोत्रजों के उपरान्त उत्तराधिकार प्राप्त होता है। जीमूतवाहन ने स्वामी की पुत्री के पुत्र के अधिकारों के तथा मनु (६।१३६) के इस कथन के आधार पर कि दौहित्र (पुत्री का पुत्र) पूर्वज को अपने पौत्र के समान ही परलोक में बचाता है, पिता की पुत्री के पुत्र को पिता के पौत्र के पश्चात्, पितामह की पुत्री के पुत्र को
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