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________________ पिण्डदान और रिक्थ ग्रहण के अधिकारी ६२५ ण्डन में सम्मिलित न हो सके, तब भी उसकी सम्पत्ति धार्मिक कल्याण योग्यता के सिद्धान्त पर अधिकृत होगी ही। यह विवेचन विस्तार से कहने योग्य था, किन्तु स्थानाभाव से हम संकोच कर रहे हैं, अतः निम्न बातें ध्यान में रखने योग्य हैं (१) एकोद्दिष्ट या पार्वण श्राद्ध द्वारा मृत का पारलौकिक हित किया जाता है। पार्वण श्राद्ध करने की योग्यता ही केवल शर्त नहीं है जिसके आधार पर किसी व्यक्ति का रिक्थाधिकार निर्भर रहता है। अतः पत्नी, दुहिता एवं शिष्य उत्तराधिकारी रूप में स्वीकृत किये गये, यद्यपि वे केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध मात्र करते हैं। किन्तु वे लोग, जो पार्वण श्राद्ध करने योग्य हैं, केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध करने वालों की अपेक्षा वरीयता पाते हैं। अतः मृत व्यक्ति की पुरुष सन्तान को पत्नी या दुहिता से वरीयता प्राप्त होती है। (२) किसी व्यक्ति को पारलौकिक हित सीधे उसके लिए किये गये पिण्डदान से प्राप्त होता है; या उसके एक या अधिक पूर्वजों को, जिन्हें वह अपने जीवन-काल में पिण्डदान देता, अन्य द्वारा दिये गये पिण्डदान में सम्मिलित होने से प्राप्त होता है; या एक या अधिक मातृ-पूर्वजों (नाना, नाना के पिता एवं नाना के पितामह) को दिये गये पिण्डदान से, जिन्हें वह स्वयं अपने जीवनकाल में पिण्डदान करता (किन्तु संप्रति उनके पिण्डदान में सम्मिलित नहीं हो सकता), उसे पारलौकिक कल्याण मिलता है। (३) सीधे रूप से प्राप्त पिण्डदान उसकी अपेक्षा, जो उसे अपनी मत्यु के उपरान्त पूर्वजों के लिए किये गये पिण्डदान में सम्मिलित होने से प्राप्त होता है, अधिक उपादेय है। इसी से पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र अन्य लोगों की अपेक्षा वरीयता प्राप्त करते हैं। भाई अपने पिता एवं मृत के दो अन्य पितरों को पिण्डदान करता है जिसमें वह (मृत स्वामी) मृत होने के उपरान्त ही सम्मिलित हो पाता है। अतः भाई को पुन या दौहित्र के (जो सीधे स्वयं मत को, अपने नाना के रूप में पिण्डदान करता है) समक्ष वरीयता नहीं मिलती, अर्थात् पुन एवं दोहित के रहते वह वरीयता नहीं प्राप्त करता। (४) पित-पक्ष के पितरों को दिया गया पिण्डदान मातृ-पक्ष के पितरों को दिये गये पिण्डदान की अपेक्षा भधिक वरीयता या श्रेष्ठता प्राप्त करता है (इसी से भाई का पुत्र बहिन के पुत्र की अपेक्षा अच्छा माना जाता है, क्योंकि वह अपने एवं मृत स्वामी के पितरों को पिण्डदान करता है और बहिन का पुत्र अर्थात् भानजा अपने मातृ-पक्ष के पितरों को, जो स्वामी के पितृ-पक्ष के पूर्वज हैं, पिण्डदान करता है)। (५) मृत स्वामी के पिता को दिया गया पिण्डदान उस पिण्डदान से अच्छा है जो पितामह या प्रपितामह को दिया जाता है। अतः भाई का पुत्र या पौत्र चाचा से अच्छा गिना जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मृत के पिता के सभी सगोत्रज एवं सजातीय पितामह या प्रपितामह के वंशजों से वरीयता में अधिक उपादेय हैं। (६) जहाँ दो अधिकारियों द्वारा प्रदत्त पिण्डों की संख्या समान हो वहाँ जो अधिकतम निकट पूर्वज को पिण्ड देता है उसे ही वरीयता प्राप्त होती है । __'दायभाग' ने 'बौधायनधर्मसूत्र' (१।५।११३),मनु (६।१८६-१८७) एवं 'मत्स्यपुराण' से प्रारम्भ करके अपनी परिभाषा निम्न रूप से दी है--एक व्यक्ति के पुत्र एवं पुत्री का जन्म एक ही कुल में होता है। दौहित्र (दुहिता या पुत्री का पुत्र ) अपने नाना के कुल से उदित होता है। किन्तु उसका गोत्र दूसरा (अर्थात् उसके पिता का गोत्र)होता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति की बहिन (पिता की पुत्री) उसी के कुल में उत्पन्न होती है, किन्तु उसका पुत्र, यद्यपि वह मृत स्वामी के कुल से उदित हुआ रहता है, दूसरे गोत्र का (बहिन के पति के गोत्र का) होता है। यही बात पिता की बहिन के पुत्र एवं पितामह की बहिन के गुन के विषय में भी है। बहिन का पुत्र मत के पिता को पिण्ड देता है, क्योंकि स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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