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________________ ६२४ धर्मशास्त्र का इतिहास विवाहिता कन्या को(या उसे जिसे पुत्र होनेवाला है) रिक्थाधिकार दिया है, क्योंकि उसका पुत्र नाना को पिण्ड देगा। इसने उत्तराधिकार में दौहित्र को पिता से वरीयता दी है, क्योंकि प्रथम स्वयं दूसरे को पिण्ड देता है और पिता अपने दो पूर्व पुरुषों को देता है जिन्हें स्वामी (मृत व्यक्ति जीवित दशा में) अवश्य ही पिण्ड देता। दायभाग' ने अन्त में निष्कर्ष निकाला है कि उत्तराधिकार का क्रम ऐसा होना चाहिये कि मृत व्यक्ति की सम्पत्ति उसके लिए अधिकतम कल्याणकारी सिद्ध हो सके (११।६।२८ एवं ३०,पृ० २१५) । और देखिये दायतत्त्व (पृ० १६७) कहीं-कहीं 'दायभाग' ने अपने सिद्धान्त का स्वयं उल्लंघन किया है, किन्तु वहां उसे तर्क द्वारा तोड़ मरोड़कर यह कहना पड़ा है कि अन्य स्मतियों के ऐसे ही वचन हैं, विशेषतः इस प्रकार के उत्तराधिकारियों के लिए । ३४ उदाहरणार्थ 'दायभाग' के अनुसार उत्तराधिकारियों का तारतम्य यों है पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र, पत्नी, दुहिता (पुत्री); दौहित्र ; पिता; माता; सहोदर भाई; सौतेला भाई; सहोदर भाई का पुत्र ; सौतेले भाई का पुत्र । किन्तु श्राद्ध करने के योग्य व्यक्तियों का क्रम कुछ और ही है। वास्तव में किसी भी सम्प्रदाय में उत्तराधिकार का अनुक्रम पूर्ण रूपेण उन लोगों के अनुक्रम के अनुसार नहीं है जिन्हें श्राद्धाधिकारी कहा जाता है । अधिकांश ग्रंथों में पृथक् हुए मृत पुरुष के श्राद्धाधिकारियों का अनुक्रम यों है-पुत्र (औरस या दत्तक) पौत्र ; प्रपौत्र ; पत्नी; विवाहित पुत्री; अविवाहित पुत्री, जिसे मृत की सम्पत्ति मिली हो; दौहित्र जिसे सम्पत्ति मिलती है; सगा भाई; सौतेला भाई (विमाता का पुत्र ) ; सगे भाई का पुत्र ; सौतेले भाई का पुत्र ; पिता; माता; पुत्र वधू; सगी बहिन ; सौतेली बहिन ; सगी बहिन का पुत्र (भानजा); सौतेली बहिन का पुत्र ; चाचा; भतीजा; अन्य गोत्रज सपिण्ड; सोदक; कोई गोत्रज; नाना, मामा, ममेरा भाई (अर्थात् क्रम से तीन प्रकार के बन्धु); शिष्य ; दामाद; श्वशुर; मिन्न ; ब्राह्मण जो ब्राह्मण की सम्पत्ति लेता है ; या राजा जो उत्तराधिकारी के अभाव में आता है । देखिये 'निर्णयसिन्धु' (३, उत्तरार्ध, पृ० ३८२-३८६), 'धर्म सिन्धु' (३, उत्तरार्ध पृ० ३६८-३६६) एवं 'श्राद्धविवेक' (पृ० ४८) । यदि पिण्डदान करने की योग्यता के सिद्धान्त का अनुसरण भली-भाँति हो तो पिता या पितामह के बिल्कुल उपरान्त ही क्रम से माता या मातामही उत्तराधिकारी हों; इसे न मान लेने में कोई तर्क नहीं है। 'दायभाग के अन्तर्गत माता को ऐसा उत्तराधिकारी इसलिए मान लिया गया है कि मनु ने उसे अधिकारी के रूप में ग्रहण कर लिया है । इसी प्रकार पुनः संयुक्त सहभागियों को भी मान्यता मिली है और वहाँ पारलौकिक कल्याण वाला सिद्धान्त लागू नहीं है। दायतत्त्व के अनुसार पिण्डदान-ग्रहण या अन्य द्वारा किये गये पिण्डदान में सम्मिलित होने की योग्यता मात्र आवश्यक समझी गयी है न कि वास्तविक पिण्ड दान करना। उदाहरणार्थ यदि कोई अपने पूर्वजों का पिण्डदान करे और आगे चलकर उसके मरने के उपरान्त कोई उसका सपिण्डन न करे और इस प्रकार वह अपने पूर्वजों को दिये गये सपि ३४. देखिये अक्षयचन्द्र-बनाम-हरिदास (३५ कलकत्ता, ७२१, पृ० ७२६) एव नलिनाक्ष-बनाम-रजनीकान्त (५८ कलकत्ता, १३६२) जहाँ यह कहा गया है कि पारलौकिक कल्याण का सिद्धान्त सभी प्रकार के विवादों में नहीं प्रयुक्त हो सकता (यथा---पुरुषों के बाद स्त्रियों के उत्तराधिकार में, समानोदकों के उत्तराधिकार में,आदि) तथा वहाँ जहाँ जीमूतवाहन एवं उनके अनुयायी मौन हैं, प्रत्यासत्ति (समीपता) का एवं स्वाभाविक प्रेम तथा स्नेह का सिद्धान्त लागू होना चाहिये । दायतत्त्व (पृ० १६३) ने बृहस्पति का हवाला देकर लिखा है कि पिण्डदान-कर्म करने की वरीयता एवं कुल-सम्बन्धी सन्निकटता--दोनों पर रिक्थाधिकार के विषय में विचार करना चाहिये ; "पिण्डदानसम्बन्ध तारतम्येन आसन्नजननतारतम्येन च धनेष्वधिकारी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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