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उत्तराधिकार के लिए पारलौकिक कल्याणकर्ता की प्रमुखता
६२३ अदृष्ट या पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति के लिए; किन्तु जब उपार्जनकर्ता मृत हो जाता है तो वह धन से सुखोपभोग नहीं कर सकता, अतः दूसरा उद्देश्य जो बच रहता है वह अदृष्ट उपभोग या कल्याण है। इसी से बृहस्पति ने कहा है कि जो रिक्थाधिकार प्राप्त हुआ रहता है उसका अर्वांश मृत व्यक्ति के लिए पृथक् कर देना चाहिये, जिससे मासिक पाण्मासिक एवं वार्षिक श्राद्ध कर्म किया जा सके।" ३ २हम श्राद्ध के विषय में इस ग्रंथ के अगले भाग में पढ़ेंगे । किन्तु 'दायभाग' का मत प्रकाशित करने के लिए यहाँ भी संक्षेप में कुछ लिख देना आवश्यक है ।
___ श्राद्ध के कई प्रकार हैं, जिनमें दो की चर्चा यहाँ आवश्यक है, यथा-एको द्दिष्ट एवं पार्वण । प्रथम अर्थात् एकोद्दिष्ट का सम्पादन केवल एक मत व्यक्ति के लिए होता है । मृत व्यक्ति के लिए एक वर्ष के भीतर या मृत्यु के ग्यारहवें दिन सोलह श्राद्ध सम्पादित होते हैं। मृत व्यक्ति के वार्षिक दिन पर एकोद्दिष्ट श्राद्ध-कर्म किया जा सकता है। पार्वण श्राद्ध का सम्पादन विशिष्ट दिनों में किया जाता है, यथा किसी अमावस्या के दिन, आश्विन की अमावस्या के दिन या सक्रांति के दिन । इसमें कर्ता के तीन पितृ-पूर्वजों के श्राद्ध कर्म आदि किए जाते हैं, तीन मातृ-पूर्वजों के लिए भी श्राद्ध किया जा सकता है, किन्तु यह गौण है और मुख्य कर्म के साथ ही किया जाता है।"३३यहाँ पर एक अन्य शब्द सपिण्डन' या 'सपिण्डीकर्म' की व्याख्या भी अपेक्षित है। यह वह श्राद्ध है जो मरने के एक वर्ष उपरांत या बारहवें दिन किया जाता है। इसके करने से मृत व्यक्ति प्रेत-योनि से मुक्त हो जाता है और पितरों को श्रेणी में आ जाता है। विधवा एवं दुहिता(पुत्री) केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध कर सकती हैं, किन्तु पुत्र , पौत्र एवं प्रपौत्र पार्वण श्राद्ध भी कर सकते हैं । 'दायभाग'(१११।३४, पृ० १६२) का कथन है कि तीन पुरुष उत्तराधिकारी-गण पार्वण श्राद्ध द्वारा मृत का महान् पारलौकिक कल्याण करते हैं। एक स्थान (११।७१७, पृ.० २११)पर 'दायमाग' ने पार्वण को 'वैपुरुषिक' की संज्ञा दी है, क्योंकि यह तीन पूर्वजों के कल्याणके लिए किया जाता है।विधवा के रिक्याधिकार की चर्चा करते हुए दायभाग (११११। ४३, पृ० १६५) ने व्यास की पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-विधवा ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित रहकर, तिलांजलि देकर ( अपने मत पति को प्रतिदिन तिल एवं जल अर्पण कर), दान देकर तया उपवास करके अपने को एवं अपने परलोकगामी पति को बचाती है(तारती है)। 'दायभाग' ने और भी कहा है कि यदि विधवा दुराचरण करती है तो उसके मृत पति का पतन हो जाता है, क्योंकि पति एवं पत्नी एक-दूसरे के पुण्यापुण्य फल की प्राप्ति के अधिकारी हैं। इसी से पति के कल्याण के लिए ही विधवा उसका धन पाती है। बृहन्मनु (दायभाग ११।१७ एवं मिता०) ने घोषित किया है कि पुत्रहीन एवं सदाचारिणी विधवा को पति के लिए पिण्डदान करना चाहिये और उसको सम्पूर्ण सम्पत्ति ग्रहण करनी चाहिये । और देखिये प्रजापति (व्य० मयूख, पृ० ७०६) । इसी प्रकार दायभाग ने अविवाहित कन्या या पुत्र वती
३२. धनार्जनस्य हि प्रयोजनद्वयं भोगार्यत्वं दानाबदृष्टार्थत्वं च। तत्रार्जकस्व तु मृतत्वादने भोग्यत्वाभावन अवृष्टार्थत्वमेव शिष्टम् । अतएव बृहस्पतिः । समुन्नाद धनादर्ष तदर्थे स्थान पवा । मासषाग्मासिके श्राद्धे वाषिके च प्रयत्नतः॥ दायमाग(११।६।१३)। बृहस्पति का श्लोक वि० र० (पृ. ५६५), व्य० नि० (पृ० ४४७) एवं विवावचन्द्र (पृ० ८१) द्वारा उद्धत है ।
३३. 'एकः उद्दिष्टः यस्मिन् श्राद्ध तदेकोद्दिष्टमिति कर्मनामवेयम् । मिताक्षरा (याज्ञ०१।२५१) तत्र त्रिपुरुषोह शेन यत्क्रियते तत्पार्वणम् । एकपुरुषोद्देशेन क्रियमा गमे कोद्दिष्टम् । मि० (याज्ञ०१।२१७पार्वण का अर्थ है 'पर्व के दिन पर सम्पादित ।' विष्णुपुराण (३।२।११८) के अनुसार पर्व के दिन ये हैं-अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी,अष्टमी एवं रविसंक्रान्ति । भविष्यपुराण (श्राद्धतत्त्व, पृ० १६२) ने पार्वण श्राद्ध को परिभाषा बों दी है--'अमावस्यां यत् क्रियते तत्पार्वणमुदाहृतम् । क्रियते वा पर्वणि यत् तत् पार्वणमिति स्मृतिः ॥
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