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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास 'मिताक्षरा' ' व्य० मयूख' ( पृ० १४३) आदि के मत में पत्नी से लेकर भाई के पुत्रों तक उत्तराधिकारीगण बद्धक्रम (जिनका क्रम निश्चित या स्थिर हो) की संज्ञा पाते हैं । अब प्रश्न उठता है कि क्या भाई के पुत्र का पुत्र ( अर्थात् भाई का पौत्र ) भाई के पुत्र के उपरान्त तथा अन्य उत्तराधिकारी के पूर्व अधिकार पाता है ? इस विषय में संस्कृत के लेखकों में मतैक्य नहीं है । 'स्मृतिचन्द्रिका' (२, पृ० ३००), 'सुबोधिनी' 'मदनपारिजात' ( पृ० ६७३ ) का कहना है कि बद्धक्रमता भाई के पुत्र तक आकर समाप्त हो जाती है, किन्तु 'अपरार्क'वरदराज' ( व्यवहारनिर्णय, पृ० ४५३ ) एवं नन्द पंडित की 'वैजयन्ती' के मत से भाई के पुत्र न का स्थान भाई के पुत्र के सर्वथा उपरान्त ही आता है। 'दायभाग' (११।६।६, पृ० २०८) ने भाई के पुत्र के पुत्र को भाई के पुत्र के उपरान्त ही रखा है, क्योंकि उसका पिण्डदान महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । गोत्रज (एक ही गोत्र वाले) । -- याज्ञवल्क्य के मत से भाई के पुत्रों तक के उत्तराधिकारियों के अभाव में गोत्र जों को उत्तराधिकार मिलता है । यद्यपि पिता, भाई, भाई के पुत्र गोत्रज ही हैं किन्तु उन्हें उत्तराधिकारियों के अनुक्रम में निश्चित स्थान प्राप्त है, अतः अन्य लोगों को, जो उपर्युक्त लोगों के गोत्र में ही उत्पन्न हुए रहते हैं, 'गोत्रज' कहा जाता है । मिताक्षरा के अनुसार गोवजों में सर्वप्रथम पिता की माता ( पितामही) को स्थान प्राप्त है, उसके उपरान्त अन्य सपिण्डों एवं समानोदकों का स्थान आता है । यही बात व्य० मयूख ( पृ० १४३ ) ने भी कही है और गोत्रज सपिण्डों में पिता की माता को सबसे पहला स्थान दिया है । यह कह देना आवश्यक है कि याज्ञवल्क्य ने 'सपिण्ड' शब्द का प्रयोग न करके 'गोत्रज' शब्द प्रयुक्त किया है। मिताक्षरा एवं मयूख ने सपिण्डों को उत्तराधिकारी माना है और उनके दो प्रकार दिये हैं; (१) गोत्रज ( एक ही गोत्र में उत्पन्न या एक ही गोत्र के ) एवं (२) भिन गोत्रज सपिण्ड (जो दूसरे गोत्र में उत्पन्न हैं) । याज्ञवल्क्य ने भिन्न गोत्रज सपिण्ड को 'बन्धु' कहा है। इससे स्पष्ट है कि (यद्यपि याज्ञ० ने 'सपिण्ड' शब्द नहीं प्रयुक्त किया है) भाई के पुत्र के उपरान्त रिक्थाधिकार सन्निकट के सपिण्ड को जाता है । याज्ञवल्क्य को 'सपिण्ड' शब्द का ज्ञान था ( १।५२ ) और उन्होंने विवाह के लिए सपिण्डता की सीमाएँ निर्धारित की हैं। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने सपिण्ड का वह अर्थ नहीं लिया है जिसे जीमूतवाहन ने लिया है। याज्ञवल्क्य ने नियोग के सिलसिले में 'सपिण्ड' एवं 'सगोत' शब्दों का उल्लेख किया है ( १।६८), किन्तु इससे दो बातें प्रकट होती हैं; (१) दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं तथा (२) सगोत्र का वही अर्थ है जो गोत्रज का है । 'आपस्तम्ब धर्मसूत्र' (२/६/१४/२ ) में आया है - - ' पुत्राभावे प्रत्यासन्नः सपिण्डः' अर्थात् पुत्रों के अभाव में सन्निकट के सपिण्ड ( उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं)। इस विषय में मनु ( ६ । १८७ ) के शब्द सर्वश्रेष्ठ हैं; 'अनन्तरः सपिण्डाद्यस्तस्य तस्य धनं भवेत्' अर्थात् सपिण्डों में जो सबसे सन्निकट ( नजदीकी) है उसी को (मृत का ) धन मिलेगा । यह कथन टीकाकारों एवं निबन्धों द्वारा कई प्रकार से व्याख्यात हुआ है और हिन्दू व्यवहार के प्रसिद्ध न्यायाधीशों एवं लेखकों द्वारा कई प्रकार से अनूदित हुआ है । २८ मुख्य कठिनाई 'सपिण्डाद्य' एवं ' तस्य तस्य' युगल शब्दों को लेकर ही है । कुछ लोगों ने एक ‘तस्य' ( उसका ) को मृत के लिए माना है और दूसरे 'तस्य' को उत्तराधिकारी के लिए प्रयुक्त माना ६२० २८. अनन्तरः सपिण्डाद्यस्तस्य तस्य धनं भवेत् । मनु ( ६ । १८७) । यह कई प्रकार से पढ़ा गया है-अनन्तरः सपिण्डो यस्तस्य तस्य धनं भवेत् (व्य० निर्णय, पृ० ४५१ ) ; मदनरत्न; यो यो ह्यनन्तरः पिण्डात्तस्य तस्य धनं भवेत् |'''तदेतद् धारेश्वरो व्याचष्टे यो यो ह्यनन्तरः पिण्डादित्यत्र पिण्डात्सपिण्डादित्यर्थो द्रष्टव्यः । स्मृतिच● (२, पृ० ३१० ) ; व्यवहारमार ( पृ० २५४ ); 'अनन्तरः सपिण्डाद्यः' इत्यनेन यः सपिण्डात्संनिहितः तस्य सपिण्डर्सनिहितस्य धनं सपिण्डस्य संनिहितस्य धनं भवेदिति विहितत्वात् । सुबोधिनी ( पृ० ७१ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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