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सपिण्डों का उत्तराधिकार और पिण्डदान का पौर्वापर्य
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है । कुछ लोगों ने 'तस्य तस्य' में दोनों तस्यों को उतराधिकारी के लिए माना है और 'य:' के साथ एक अन्य 'यः' को लुप्त माना है ( क्योंकि उससे पद्य की मात्रा में गड़बड़ी हो जाती ) । इसी प्रकार 'सपिण्डाद्य:' में कुछ लोगों ने दो शब्द लिये हैं, यथा--' सपिण्डात् य:' तथा कुछ लोगों ने उसे केवल एक शब्द माना है, यथा सपिण्डाद्यः, अर्थात् सपिण्ड तथा उसके समान अन्य । जैसा कि २८ वीं टिप्पणी में दिया गया है, कुछ निबन्धों एवं टीकाकारों ने इस पद्य को कई प्रकार से पढ़ा है। कुल्लूक एवं दायतत्व ( पृ० १६५ ) ने 'सपिण्डात्' को सपिण्डमध्यात् (सपिण्डों के बीच से ) के अर्थ में लिया है, जो सम्भवतः सबसे अच्छी व्याख्या है। बृहस्पति का कथन है--"जहाँ बहुत-से सगोत्र ( सजातीय - - अपने गोल के ), सकुल्य एवं बन्धु हों, उनमें जो आसन्नतर ( अधिक नजदीकी) होता है वही पुत्र हीन का धन प्राप्त करता है । " २६
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है -- ' सपिण्ड' शब्द का अर्थ क्या है ? 'मिताक्षरा' एवं 'दायभाग' ने इसके दो भिन्न अर्थ दिये हैं, जिनका उल्लेख हमने पहले कर दिया है (देखिये इस ग्रन्थ का भाग-२, अध्याय ६) । गोल की परिभाषा देते समय पाणिनि ( ४|१|१६२ ) ने 'सपिण्ड' (४।१।१६५ ) शब्द प्रयुक्त किया है। जैसा कि काशिका ने समझाया है, यह शब्द रक्त सम्बन्ध के अर्थ में लिया गया है । मिताक्षरा के मत से रिक्याधिकार रक्त सम्बन्ध पर आधारित है ( 'एकशारीरावयवान्वय' अर्थात् शरीर के अवयवों के द्वारा सम्बन्ध ) और रक्त सम्बन्धियों में वरीयता प्रत्यासक्ति ( सन्निकटता ) पर घोषित होती है । 'दायभाग' के मत से सपिण्ड सम्बन्ध धार्मिक योग्यता पर निर्भर है, अर्थात्श्राद्ध में पिण्ड देने के ऊपर, जिस पर हम आगे प्रकाश डालेंगे। यह स्पष्ट है कि मृत के श्राद्धकर्म एवं उसकी रिक्थप्राप्ति के उत्तराधिकार में घनिष्ठ सम्बन्ध है । परन्तु प्रश्न तो यह है, कि क्या वही व्यक्ति उत्तराधिकारी हो सकता है जो पिण्डदान करे ? या जिसे रिक्थाधिकार किन्हीं अन्य कारणों से मिलता है उस पर रिक्थाधिकार मिल जाने के उपरान्त मृत व्यक्ति के श्राद्धकर्म करने का उतरदायित्व आता है ? इस प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर देना कठिन है । ऐसा लगता है कि प्राचीन सूत्रों ने रिक्शाधिकार के सिद्धान्त को निश्चित करने में पिण्डदान की धार्मिक योग्यता पर बल नहीं दिया है । आप०, मनु एवं बृह० ( विशेषतः प्रथम एवं अन्तिम ) ने केवल सन्निकटता (जिसका स्वाभाविक अर्थ है रक्त की सन्निकटता ) पर ही बल दिया है। याज्ञ० ने उत्तराधिकारियों की चर्चा में 'सपिण्ड' शब्द का नाम नहीं लिया है। मनु ( ६ । १४२ ) का कथन है कि पिण्ड तो गोत्र एवं रिश्य (धन) का अनुसरण करता है। विष्णु० (१५/४०) ने घोषित किया है - " जो कोई ( मृत का ) घन पाता है, वह उसको पिण्ड देता है ।" इस नियम पर उन लेखकों (व्य० मयूख आदि के लेखकों) ने भी बल दिया है, जिन्होंने रक्त सम्बन्ध को उतराधिकार के लिए आवश्यक माना है। उनका कथन है कि जो कोई, यहाँ तक कि राजा भी, मृत की सम्पत्ति पाता है, उसे उसका श्राद्ध कर्म करना चाहिये या उसके लिए मर जाने पर दस दिनों की अन्त्येष्टि क्रिया, श्राद्ध आदि का प्रबन्ध कराना चाहिये, जैसा कि ब्रह्मपुराण में आया है— " तदभावे च नृपतिः कारयेत्वकुटुम्बिनाम् । तज्जातीयैर्नरैः सम्यग्दाहाद्याः सकलाः क्रियाः || ” ( २२०/७६) । मिताक्षरा के मत का समर्थन वि० २०वि० चि०, प० मा०, म०पा०, स० वि०, व्य० म०, बालम्भट्टी आदि ने किया है । दायभाग के सिद्धांत का प्रतिपादन केवल कुछ मध्यकाल के ग्रंथों एवं अपरार्क, रघुनंदन एवं नंद पंडित ने किया है । वीरमित्रोदय ने सामान्यतः मिताक्षरा का अनुसरण किया है, किन्तु कुछ विवादों में धार्मिक योग्यता के सिद्धान्त पर ही
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२६. वहवो ज्ञातयो यत्र सकुल्या बान्धवास्तथा । यस्त्वा पन्त्रत रस्तेषां सोऽनपत्यधनं हरेत् । बृह० ( स्मृतिच० २, पृ० ३०१; मदनरस्न; पराशरमाधवीय ३, पृ० ५२६; दायतत्व पृ० १६५; व्य० प्र० ५२७ । स्मृतिच० एवं मदनरत्न ने व्याख्या की है- "ज्ञातयः सपिण्डाः सकुल्याः समानोदकः । बान्धवा.....स्मृत्यन्तरे दर्शिता आत्मपितृष्वसुः पुत्राः ० ।”
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