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________________ सगे-सौतेले भाइयों के उत्तराधिकार का विचार ६१६ स्मृतिच० (२, पृ० ३००) ने कुछ लोगों के इस मत का खण्डन किया है कि याज्ञवल्क्य के 'भ्रातरः' शब्द में एकशेष समास है, क्योंकि पाणि नि (१।२।६८) के मत से इसका अर्थ है 'भाई एवं बहिन" (भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितभ्याम्) और भाइयों के अभाव में बहिनें उत्तराधिकार पाती हैं।२७ व्य० मयूख ने भी ऐसा ही कहा है । इससे प्रकट हैं कि कुछ लोगों ने विशेषतः कुछ मध्यकाल के एवं पश्चात्कालीन कानूनवेत्ताओं (जूरिस्टों) ने, स्त्रियों के अधिकारों को बढ़ाना चाहा है, किन्तु अन्ततोगत्वा उनके मतों को बल न मिल सका। ऐसा कहा गया है कि समान पिता वाले भाइयों को (जिनकी माताएँ भिन्न हों) समान माता वाले भाइयों से (जिनके पिता भिन्न हों) वरीयता मिलनी चाहिये, क्योंकि मिताक्षरा आदि ने पुनर्विवाह के उपरान्त उसी माता से उत्पन्न पुत्रों को वही मान्यता नहीं दी है जो उन पूत्रों को मिलती है जो समान पितृक हैं । किन्तु नन्द पंडित ने अपनी 'वैजयन्ती' में भाइयों एवं बहिनों को जो सगे हैं या सौतेले हैं, उत्तराधिकार के लिए निम्न अनुक्रम में रखा है--(१) सगे भाई, (२) सगी बहिनें, (३) ऐसे भाई जो एक ही पिता के पुत्र हैं एवं (४) ऐसे भाई जो एक ही माता के पुत्र हैं (देखिये डॉ० जॉली, टैगोर लॉ लेक्चर्स, पृ० २०८ एवं २८७) । क्योंकि मनु (६।२१७) ने कहा है कि सन्तानहीन व्यक्ति का धन माता के अभाव में पितामही को मिलता है, अत: 'स्मृ तिचन्द्रिका' (२, पृ० २६६) ने पितामही को भाइयों के पूर्व रखा है, किन्तु यह मत किसी अन्य को मान्य नहीं है । मिताक्षरा का कथन है कि मनु ने कोई अनुक्रम नहीं उपस्थित किया है, उन्होंने पितामही को केवल उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया है। मिताक्षरा के कथनानुसार मनु, शंख आदि ने केवल उत्तराधिकारियों के नाम घोषित किये हैं और याज्ञवल्क्य एवं विष्णु ने वह अनुक्रम बताया है जिसके अनुसार उत्तराधिकारियों को कम से पूर्व के अभाव में उत्तराधिकार मिलता है। किन्तु 'व्यवहारप्रकाश (प० ५२७) ने इसे नहीं माना है। व्यवहारमयूख' ने उत्तराधिकार का एक विशेष अनुक्रम घोषित किया है; (१) सगे भाई (समानमातृपितृ का भ्रातरः), (२) सगे भाई के पुत्र, (३) गोत्रज सपिण्ड, जिनमें पितामही को प्रथम स्थान है, (४) बहिन, (५) पितामह एवं उसी के साथ सौतेला भाई एवं (६) प्रपितामह, चाचा तथा उसके साथ सौतेले भाई का पुत्र। यहाँ जो संयुक्त उत्तराधिकारियों के नाम घोषित हैं वे अप्रचलित हो गये हैं, और बम्बई के उ उन्हें मान्यता नहीं दी है। मिताक्षरा ने बहिन का नाम नहीं लिया है, किन्तु मिताक्षरा की मान्यता वाले जनपदों में भी बम्बई के उच्च न्यायालय ने उसे सन्निकट की उत्तराधिकारी घोषित किया है और उसे भाइयों (सगे एवं सौतेले), भाई के पुत्रों (सगे या सौतेले) एवं पितामही के उपरान्त रखा है। व्य० मयूख के अन्तर्गत सगी बहिन का स्थान सगे भाइयों एवं सगे भाइयों के पुत्रों तथा पितामही के उपरान्त है और सौतेले भाइयों एवं सौतेले भाई के पुत्रों के पूर्व आता है। २७. यद्यपि भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितभ्यामिति शान्दस्मृत्या पुत्रभ्य इत्यत्र विरूपैकशेषं कृत्वा दुहितणामनुप्रवेशोऽत्र कर्तुं शक्यते, तथापि "पुमांसो दायादा न स्त्रियः, तस्मास्त्रियो निरिन्द्रिया अदायादोः" इति श्रुतेरित्येतेनेवं निरस्तं यत्कश्चिदुक्तम् । स्मृतिच० (२, पृ० ३००) । "पुत्रेभ्यः" का संकेत आप० ध० सू० (२।६।१४।१)की और है । यदि 'भ्रातरः' का अर्थ भाई है तो यह 'सरूप' के प्रकार का एकशेष समास है, किन्तु यदि इसका अर्थ 'भाई एवं बहिन है तो यह विरूप' नामक एकशेष समास होगा । अन्तिम रूप के ग्रहण के लिए किसी विशेष कारण का होना आवश्यक है, यथा-यदि कहा जाय दो कुक्कुट (मुर्गे)ले आओ,हम उनका जोड़ा(नर एवं मादा का) बनायेंगे, तो ऐसी विशिष्ट स्थिति में 'कुक्कुटौ' का अर्थ होगा एक मुर्ग एवं एक मुर्गी, यद्यपि साधारणतः इसका अर्थ है 'दो मुर्गे'। स्म० च०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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