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________________ राजत्व का अधिकार ५८५ में ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों की भी चर्चा हुई है । इससे प्रकट होता है कि राजसूय करने वाला राजा किसी भी जाति का हो सकता है । बहुत से ब्राह्मण-वंशों ने राज्य एवं साम्राज्य स्थापित किये थे । शुंग साम्राज्य का संस्थापक पुष्यमित्र ब्राह्मण जाति का था (हरिवंश ३।२।३५) । शुंगों के उपरान्त कण्व ब्राह्मणों ने तथा उनके उपरान्त वाकाटक, कदम्ब आदि ब्राह्मण राजाओं ने राज्य किये। हमने इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग में ब्राह्मणों की चर्चा करते हुए देख लिया है कि आपत्काल में वे लोग अस्त्र-शस्त्र ग्रहण कर सकते थे । मनु (१२/१००) ने लिखा है कि वेदज्ञ ब्राह्मण राजा, सेनापति या दण्डाधिपति हो सकता है । जैमिनि (२।३।३) की व्याख्या में कुमारिल ने लिखा है कि सभी जातियों के लोग शासक होते देखे गये हैं । पाल वंश का संस्थापक गोपाल शूद्र था। मनु ( ४।६१ ) ने लिखा है कि शूद्र द्वारा शासित देश में ब्राह्मणों नहीं रहना चाहिए । शान्तिपर्व में आया है कि जो भी कोई दस्युओं अथवा डाकुओं से जनता की रक्षा करता है। और स्मृति-नियमों के अनुसार दण्ड-वहन करता है, उसे राजा समझना चाहिए। हरिवंश ( ३।३।६) तथा कुछ पुराणों आया है कि कलियुग में अधिकतर शूद्र राजा होंगे और वे अश्वमेध यज्ञ करेंगे (देखिए मत्स्य० १४४ |४० एवं ४३ एवं लिंग० ४०।७ एवं ४२ ) । युवान च्वाँग ने अपने यात्रावृत्तान्त में उल्लेख किया है कि सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सिंध पर शूद्र राजा का राज्य था । यह एक सामान्य नियम-सा था कि केवल पुरुषवर्ग ही राजा हो सकता है । बहुत थोड़े ही अपवाद पाये जाते हैं । शान्ति० ( ३३।४३ एवं ४५ ) में आया है कि विजित देश के सिंहासन पर राजा के भाई, पुत्र या पौत्र को बैठाना चाहिए किन्तु राजकुमार के न रहने पर भूतपूर्व राजा की पुत्री को यह पद मिलना चाहिए । राजतरंगिणी (५।२४५ एव ६।३३२ ) ने सुगन्धा (६०४-६०६ ई०) एवं दिद्दा ( ६८०-८१ ई०) के कुख्यात शासन का वर्णन किया है । तेरहवीं शताब्दी के गंजाम ताम्रपत्र ने शुभाकर के मर जाने पर उसकी रानी तथा पुत्री दण्डी महादेवी के राज्यपद सुशोभित करने का वर्णन किया है और दण्डी महादेवी को "परमभट्टारिका -- महाराजाधिराजपरमेश्वरी" की उपाधि दी है। रघुवंश ( २६।५५ एवं ५७ ) में आया है कि अग्निवर्ण राजा की विधवा रानी गद्दी पर आसीन हुई और वंशपरम्परा से चले आते हुए मन्त्रियों की सहायता से शासन कार्य किया । विजय एवं निर्वाचन के कतिपय उदाहरणों को छोड़कर राजत्व बहुधा आनुवंशिक था और ज्येष्ठ पुत्र को ही गद्दी मिलती थी । शतपथ ब्राह्मण ( १२२६ । ३ । १ एवं ३) ने दस पीढ़ियों तक चले आते हुए राजत्व का उल्लेख किया है । राजा के मर जाने या राज्य-पद से च्युत हो जाने पर सामान्यतः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य-पद का अधिकारी होता था । वैदिक काल में भी ज्येष्ठ पुत्रों एवं पुत्रियों के अधिकारों की रक्षा की जाती थी । यही बात स्मृतियों के समयों में भी थी । ऋग्वेद (१/५२६, ३१५०१३) ने इन्द्र के ज्येष्ठ्य पद की ओर कई बार संकेत किया है । तैत्तिरीय संहिता (५।२७) में भी यह बात लिखी हुई है कि पिता की सारी सम्पत्ति ज्येष्ठ पुत्र को मिलती है । ऐतरेय ब्राह्मण (१६/४) ने लिखा है कि देवों ने इन्द्र के ज्यैष्ठ्य पद को अस्वीकृत कर दिया था, अतः इन्द्र ने बृहस्पति द्वारा द्वादशाह यज्ञ सम्पादित कर अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त की । निरुक्त ( २1१० ) में देवापि एवं शन्तनु की कथा आयी है। छोटे भाई शन्तनु ने राज्य प्राप्त कर लिया अतः देवापि ने तप करना आरम्भ किया । शन्तनु के राज्य में १२ वर्षों तक वृष्टि नहीं हुई क्योंकि देवगण रुष्ट हो गये थे । शन्तनु से ब्राह्मणों ने कहा - "आपने बड़े भाई का अधिकार हर लिया है, इसी से यह गति है ।" शन्तनु ने अपने बड़े भाई देवापि को राज्य-पद देना चाहा । देवापि ने पुरोहित-पद स्वीकार कर यश आरम्भ कराया । जल बरसाने के लिए देवापि ने मन्त्र प्रकट किये, जो ऋग्वेद के १०१६८ के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हैं। इस कथानक से स्पष्ट है कि निरुक्त के लेखक यास्क के पूर्व बड़े भाई के अधिकारों को छीन लेना एक पाप समझा जाता था । उसी कथानक को दूसरे रूप में बृहद्देवता ( ७।१५६-१५७ एवं ८३१-६) ने उल्लिखित किया है । जब ययाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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