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पुत्री और दौहित्र का उत्तराधिकार प्रथम प्रकार की कन्याओं को वरीयता मिलनी चाहिये ,क्योंकि दूसरे प्रकार की कन्याएं विवाहित न होते हुए भी अक्षत योनि (कुमारी) नहीं हैं। कुछ स्मृतियों ने, यथा पराशर ने, कन्या के उतराधिकार के सिलसिले में 'कुमारी' शब्द का प्रयोग किया है, और अन्य लोग 'कन्या' शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्याय हैं । गोविन्दबनाम-भिक (४६, बम्बई, एल० आर० ६६६) के मामले में, जहाँ मत व्यक्ति की एक विवाहित कन्या थी एवं एक ऐसी अविवाहित कन्या थी जो किसी व्यक्ति की स्थायी रखैल थी, उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि दूसरी कन्या (जो अविवाहित रखैल थी) अपने पुत्रहीन पिता का रिस्याधिकार तो विवाहित बहिन के साथ नहीं प्राप्त कर सकती। मेधातिथि (मनु ६।१३२) ने कहा है कि 'कन्या' का अर्थ है वह लड़की जिसने किसी पुरुष के साथसंभोग न कियाहो। मिताक्षरा ने तीन प्रकार की कन्याओं को एक दूसरी के पश्चात् उत्तराधिकारी माना है, (१) अविवाहित कन्या (२) निर्धन विवाहित कन्या एवं (३) धनिक विवाहित कन्या। न्यायिक निर्णयों ने एक चौथा प्रकार जोड़ दिया है; अविवाहित कन्या जो वेश्या हो चुकी है । यहाँ एक नवागन्तुक जोड़ है अतः यहाँ स्मृतियों एवं टीकाकारों के कथन (आमंत्रित लोगों के अन्त में या बाद में ही वे लोग बैठाये जायँ जो बिना बुलाये आते हैं) के अनुसार उपर्युक्त कोटियों के उपरांत ही इसका स्थान होगा । देखिये शबर ("आगन्तूनामन्ते संनिवेशः” जैमिनि ५।२।१६, १०५१), शंकर (वेदांतसूत्र ४।३।३) एवं 'व्यवहारमयूख' (पृ० १४३) जिन्होंने भाई के पुत्र के उपरान्त पितामही का स्थान नियुक्त किया है।
दौहित्र (पुत्री का पुत्र)--पुत्रियों के अभाव में पुत्री-पुत्रको उत्तराधिकार प्राप्त होता है। गौतम,आपस्तम्ब, वसिष्ठ,याज्ञवल्क्य एवं विष्णु दौहित्र के विषय में मौन है। किन्तु विश्वरूप ने एक युक्तिसंगत बात कही है कि जब याज्ञवल्क्य ने स्वयं यह (२।१३४) कहा है कि जब वैध पुत्र न हो और जब दौहित्र तक कोई अन्य उत्तराधिकारी न हो तो शूद्रों में अवैध पुत्र को सम्पूर्ण सम्पत्ति मिल जाती है, तो यह मानना उचित है कि याज्ञवल्क्य ने पुत्रियों के उपरांत दौहित्रों को उतराधिकारी अवश्य माना है। मदनपारिजात (पृ० ६७२)ने याज्ञवल्क्य के 'च' शब्द को दौहित्र'अर्थ के लिए ही अनुमानित किया है । 'मिताक्षरा' ‘दायभाग आदि ने विष्णुधर्म सूत्र का एक वचन (जो मुद्रित ग्रंथ में नहीं पाया जाता) उद्धृत किया है--''जब पुत्र या पौत्र से शाखा वंचित हो तो दौहित्र को मृत स्वामी का धन मिलता है,पितरों के पिण्डदान में दोहित्रपौत्र के समान गिने जाते हैं।'' २१देखिये व्यवहारमयूख' (पृ०१४२)। मनु के टीकाकार गोविंदराज ने विष्णु के वचन के आधार पर यह व्यवस्था दी है कि मृत की विवाहित कन्या के पूर्व दौहित्र का अधिकार होता है,किन्तु ‘दायभाग' को यह मत मान्य नहीं है । दायभाग (११।२।२७) ने बालक के मत का उल्लेख किया है कि याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट रूप से दौहित्र का उल्लेख नहीं किया है अतः वह अन्य स्पष्ट रूप से व्यक्त उत्तराधिकारियों के उपरान्त ही अधिकारी होता है। बौधायन० (२।२।१७) ने पुत्रिकापुत्र एवं कन्या का अन्तर तो अवश्य बताया है किन्तु यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि उन्होंने दौहित्रको उत्तराधिकारी घोषित किया है । मनु (६।१३१-१३३) ने स्पष्ट कहा है--"पुत्रहीन व्यक्ति का सम्पूर्ण धन दौहित्रपाता है, उसे एक पिण्ड पिता को तथा दूसरा नाना को देना चाहिये । धार्मिक मामलों में पौत्र एवं दौहित्र में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि क्रम से उनके पिता एवं माता की उत्पत्ति मृत स्वामी के शरीर से ही हुई है।" इस कथन के सन्दर्भ एवं शब्दों के आधार पर कुल्लू क आदि टीकाकारों ने मन्तव्य प्रकाशित किया है कि यहाँ जिस 'दौहित्र' की चर्चा हुई है वह नियुक्त कन्या का पुत्र है । किन्तु मनु (६।१३६) स्पष्टतर कह चुके हैं; "जब समान जाति
२१. तथा गोविन्दराजेनापि मनुटीकायाम्--अपुत्रपौत्रे संसारे दौहित्रा धनमाप्नुयुः । पूर्वेषां तु स्वधाकारे पौत्रा दौहित्रकाः समाः । एतद्विष्णुवचनबलेनोढातः प्रागेव दौहित्रस्याधिकारो दशितः । स चास्मभ्यं न रोचते । दायभाग (६।२३-२४ पृ० १८१)।
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