SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास और उत्तराधिकार के लिए पुत्रियों में किसी का चुनाव अपेक्षित है ही । 'अपरार्क' ( पृ० ७२१ ) एवं 'विवाद रत्नाकर' ( पृ० ५१७ ) ने 'अप्रतिष्ठित' (मिता०, याज्ञ० २।१३५ ) के तीन अर्थ दिये हैं; सन्तानहीन, निर्धन एवं विधवा । बम्बई को छोड़कर अन्य भारतीय उच्च न्यायालयों के मत से पुत्री का अधिकार विधवा के अधिकार के समान ही है । वह केवल सीमित अधिकार पाती है, वह केवल सम्पत्ति उपभोग कर पाती है, सम्पत्ति के विघटन का अधिकार उसे नहीं प्राप्त होता । मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को नहीं प्राप्त होती, बल्कि उसके पिता के अन्य उत्तराधिकारी को मिलती है। बम्बई में ऐसी बात नहीं है, वहाँ कन्या को उत्तराधिकार प्राप्त होने पर पिता के धन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है और उसकी मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके ही उत्तराधिकारियों को प्राप्त होती है । ६१४ निर्णीत विवादों के अनुसार पिता की मृत्यु के समय व्यभिचारिणी कन्या को भी पिता की सम्पत्ति मिलती है। ( दायभाग के अन्तर्गत ऐसा नहीं है) । इसका कारण यह है कि कात्यायन एवं अन्य स्मृतिकारों ने ब्रह्मचर्य की सीमा केवल विधवा पत्नी के लिए बाँधी है, उन्होंने कन्या एवं माता के लिए स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं किया है। दायभाग (११।२८) के उल्लेखानुसार बृहस्पति की घोषणा है -- “ वह कन्या, जो पिता की जाति की है, उसी जाति के पति से विवाहित है, जो गुणशीला है और पतिपरायणा है अपने पिता की सम्पत्ति पाती है ।" अतः जो कन्या व्यभिचारिणी है, वह रिक्थाधिकार नहीं पा सकती कन्या केवल इसीलिए धन नहीं पाती कि वह कन्या है, प्रत्युत इसलिए कि वह बृहस्पति द्वारा प्रदत्त शर्तों को पूरा करती है । दायभाग (११।२।३१ ) का कथन है कि 'पत्नी' (११।१।५६ ) शब्द केवल उपलक्षण मात, अर्थात् उदाहरण -स्वरूप है, पत्नी पर जो प्रतिबन्ध लागू हैं वे सभी उत्तराधिकार वाली स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होते हैं । २० अवैध कन्या को अपने पिता का रिक्शाधिकार नहीं मिलता। यह नियम शूद्रों में भी लागू है । कुल परम्परा के अनुसार कहीं-कहीं कन्याएँ रिक्थाधिकार से वञ्चित मानी जाती हैं, यथा-- अवध ( उत्तरप्रदेश) के भाले सुलतान क्षत्रियों में । यह अवलोकनीय है कि नन्द पण्डित ने अपनी वैजयन्ती ( विष्णुधर्मसूत्र १७।५-६ की टीका) में कहा है कि कन्या की अपेक्षा पुत्रवधू को वरीयता मिलनी चाहिए, किन्तु इस प्रकार का मत रखने वाले वे एकमात्र लेखक हैं (देखिये डॉ० जॉली, टंगोर लॉ लेक्चर्स, पृ० १६६ एवं २८६ ) । बम्बई को छोड़कर ( जहाँ वह सगोत्र सपिण्ड रूप में रिक्थाधिकार पाती है) सम्पूर्ण भारत में कहीं भी पुत्रवधू को रिक्थाधिकार नहीं मिलता। बालभट्टी ने बिना नाम लिये नन्द पण्डित की आलोचना की है और व्यवस्था दी है कि पुत्रवधू को केवल गोत्रज रूप में ही उत्तराधिकार प्राप्त होता है। और वह भी पुत्री के रहते नहीं । रघुनन्दन ने दायभाग (११।२।३१ ) के विषय में टिप्पणी करते हुए व्यभिचाररत कन्याओं की स्थिति सर्वथा स्पष्ट कर दी है। स्मृतियों ने कन्याओ में कुमारियों को वरीयता दी है, अर्थात् वे कन्याएँ जो अभी अक्षतयोनि हैं । भारतीय उच्च न्यायालयों ने व्यवस्था दी है कि यद्यपि कन्याओं के विषय में उत्तराधिकार के लिए ब्रह्मचर्य कोई आवश्यक शर्त नहीं है, तथापि विवाहित कन्याओं एवं उन कन्याओं में, जो विवाहित तो नहीं हैं किन्तु रखेल या वेश्या हो गयी हैं, २०. तदाह बृहस्पतिः । सदृशी सदृशेनोढा भर्त शुश्रूषणे रता । कृताकृता वा पुत्रस्य पितुर्धनहरी तु सा ॥.... सेति च पूर्ववचनोपात्ता दुहिता परामृश्यते । तदेवं सदृशी सदृशेनोढा इत्यादिविशेषणान्न दुहितृमात्रतया पितृधनाधिकारितेति दर्शयति यद्वा पत्नीत्युपलक्षणं स्त्रीमात्राधिकारेऽयमर्थो बोद्धव्य इति तात्पर्यम् । दायभाग (११।२६, १३, ३१ ) । Jain Education International ... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy