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________________ पुत्री का दायाधिकार ६१३ तो संदर्भ से, जैसा कि 'स्मृतिचन्द्रिका' (२, पृ० २६६ ) का कहना है, यही प्रकट होता है कि उन्होंने उस कन्या की ओर संकेत किया है जिसकापिता मरने के पहले पुनःसंयुक्त हो गया था। बृहस्पति का कहना है कि" पत्नी को पति की 'धनहरी' ( धन पानेवाली कहा गया है, उसके अभाव में पुत्री का अधिकार होता है; कन्या पुत्र के समान पिता के शरीर से ही उत्पन्न होती है, अतः उसके रहते उसके पिता की सम्पत्ति अन्य व्यक्ति कैसे पा सकता है ?" १ ६ यद्यपि याज्ञवल्क्य, विष्णु, एव बृहस्पति के वचन पर्याप्त स्पष्ट थे, किन्तु प्राचीन टीकाकारों ने उनका शाब्दिक अर्थ नहीं लिया । विश्वरूप ने कहा है कि याज्ञवल्क्य ने केवल 'पुत्रिका' की ओर संकेत किया है और उसके बहुवचन से तात्पर्य है कि कई पुत्रिकाएँ पुत्र के रूप में नियुक्त की जा सकती हैं । यही बात धारेश्वर देवस्वामी एवं देवरात ने भी कही है ( स्मृतिच० २, पृ० २६५) । किन्तु मिताक्षरा ने इन लोगों को उत्तर दिया है -- याज्ञवल्क्य का 'दुहितरः' शब्द 'पुत्रिका' की ओर संकेत नहीं करता, क्योंकि उन्होंने स्वयं ( २।१२८) पुत्रिका' को औरस पुत्र के समान माना है, वसिष्ठ ने भी अन्य पुत्रों के दल में 'पुत्रिका' को रखा है और अन्य पुत्रों (मुख्य एवं गौण) के अभाव में विधवा एवं पुत्रियों को उत्तराधिकार के मामले मान्यता दी है । याज्ञ०, विष्णु० एवं बृह० इस विषय में मौन ही हैं कि कन्याओं में उत्तराधिकार के मामले में कोई अन्तर है या नहीं । कात्यायन (६२६) ने अविवाहित कन्या को वरीयता दी है और इस मत को मिताक्षरा तथा अन्य निबन्धों में मान्यता मिली है । दायभाग (११।२४, पृ० १७५ ) नं पराशर की उक्ति की चर्चा करके अविवाहित कन्या को विवाहित कन्या से अधिक मान्यता दी है। मिताक्षरा ने गौतम (२८/२२ ) का उल्लेख करके स्त्रीधन के उत्तराधिकार के विषय में विवाहित कन्याओं में उस कन्या को अधिक मान्यता दी है जो अपेक्षाकृत निर्धन है । स्पष्ट है, मिताक्षरा ने यहाँ सामान्य अनुभव की ओर संकेत किया है कि पिता उस कन्या की अधिक चिन्ता करता है जो अपेक्षाकृत निर्धन है अथवा अप्रतिष्ठित है । मिताक्षरा के समान ही दायभाग ने कुमारी कन्या को विवाहित कन्या की अपेक्षा अधिक मान्यता दी है। किन्तु विवाहित कन्याओं के विषय में चर्चा करते हुए जीमूतवाहन ( दायभाग के लेखक ) ने दीक्षित नामक लेखक का उल्लेख करके कहा है कि पुत्रवती कन्या या पुत्रवती होने वाली कन्या को विधवा या बन्ध्या (बाँझ) या केवल पुत्रियों वाली विवाहित कन्या से अधिक वरीयता मिलनी चाहिये । इस वरीयता के पीछे दायभाग का यह सिद्धान्त है--उत्तराधिकार के विषय में पारलौकिक कल्याण की भावना निहित है । बन्ध्या या विधवा कन्या पुत्रवती न होने के कारण पारलौकिक या आध्यात्मिक लाभ नहीं दे सकती, क्योंकि जब नाना को पिण्डदान ही नहीं मिलेगा तो पारलौकिक कल्याण की बात ही कहाँ उठती है ? इस विषय में मिताक्षरा रक्त की संन्निकटता ( प्रत्यासत्ति) के सिद्धान्त पर आरूढ़ है । किन्तु, जैसा कि 'व्यवहारप्रकाश' ( पृ० ५१६ ) का कथन है, दायभाग का सिद्धान्त असंगत है। यह कहना कि कुमारी कन्या को पुत्रवती विवाहित कन्या की अपेक्षा वरीयता मिलनी चाहिये, तर्कहीन सिद्धान्त है, क्योंकि जब पुत्रवती कन्या का अस्तित्व है ही, तो उस कन्या को क्यों वरीयता मिलनी चाहिये जिसका पुत्रवती होना या न होना भविष्य के गर्भ में है ? पिण्डदान द्वारा पारलौकिक लाभ की प्राप्ति के लिए ही तो पुत्र की खोज है (भाग ५० ) ; या तस्य दुहिता तस्याः पित्र्योशो भरणे मतः । आसंस्कारं भजेरंस्तां परतो बिभृयात्पतिः ॥ नारद ( दायभाग २७); स्यादेवं यदि नारदवचनं विभक्तविषयं स्यात् । संसृष्टविषयं तु तदिति तस्यैव पूर्वापरपर्यालोचनया स्पष्टमवगम्यते । स्मृतिच० (२, पृ० २६६ ) । १६. भर्तुर्धनहरी पत्नी तां विना दुहिता स्मृता । अंगाबंगात्स भवति पुत्रवद् दुहिता नृणाम् ॥ तस्मात्पितृधनं त्वन्यः कथं गीत मानवः । बृह० ( मिताक्षरा, याज्ञ० २ १३५; स्मृतिच० २ २९४; वि० पृ० ५६१ ) । ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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