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धर्मशास्त्र का इतिहास सकता कि वे उनके कथनों को नहीं जानते थे,सम्भवतः उन्होंने तै० सं० को परा० माधवीय के अर्थ में ही लिया। तैत्तिरीय संहिता एवं बौधायन पर मध्यकालिक निबन्धों के निर्भर होने के कारण बम्बई एवं मद्रास को छोड़कर अन्य प्रान्तों में केवल पाँच प्रकार की स्त्रियों को ही उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया गया; विधवा पत्नी, पुत्री, माता, पितामही एवं प्रपितामही को, क्योंकि वे स्पष्ट रूप से स्मृतियों एवं आरम्भिक टीकाओं में उल्लिखित हैं । इस पर हम आगे भी पढ़ेंगे।
पति के रहते पत्नी के भरण-पोषण-सम्बन्धी अधिकारों के विषय में हमने इस ग्रन्थ के भाग २ के अध्याय ११ में पढ़ लिया है। यदि पत्नी व्यभिचार की अपराधिनी है और अन्त में प्रायश्चित्त की शरण जाती है तो उसे भरण-पोषण का अधिकार तब भी प्राप्त हो जाता है। संयुक्त परिवार के मृत सदस्यों की विधवाओं के भरण-पोषण के अधिकारों के विषय में बहुत से निर्णीत विवाद हैं, जिन्हें हम छोड़े दे रहे हैं, केवल दो-एक बातें दी जा रही हैं । संयुक्त परिवार की विधवाआ के जाविका से सम्बन्धित अधिकार उनके ब्रह्मचर्य पर आधारित हैं । संयुक्त परिवार के पुरुष सदस्य बहुधा विधवाओं को जीवन-वृत्ति देना नहीं चाहते, अतः विधवाएँ न्यायालयों की शरण लेती हैं। "पेशवा दफ्तर के संग्रह" (जिल्द ४३, पत्र सं० १४२) में ऐसा आया है कि पेशवा के न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रामशास्त्री ने दण्ड देने की धमकी देकर बापूजी ताम्बरवेकर को लिखा कि वह अपने बड़े भाई की विधवा के आभूषण सात दिनों के भीतर (वह विवाह के सात दिनों के उपरान्त ही विधवा हो गयी थी) लौटा दे और उस की जीविका के लिए पचीस रुपये प्रति वर्ष देने की व्यवस्था कर दे।
कन्याएँ--जब तक मृत स्वामी की विधवा जीवित रहती है, कन्याएँ रिक्थाधिकार नहीं पाती। विधवा के समान कन्या को भी उत्तराधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ा। गौतम, बौधायन एवं वसिष्ठ ने उसे उत्तराधिकारियों में नहीं गिना है । आपस्तम्ब (२।६।१४३) ने उसे (सम्भवतः सपिण्डों के साथ) वैकल्पिक रूप में ही स्वीकृत किया है। मनु (६।१३०) ने जो यह कहा है कि "व्यक्ति का पुत्र उसकी आत्मा के समान है उसकी पुत्री उसके पुत्र के बराबर है; ऐसी स्थिति में जब तक वह मृत व्यक्ति की आत्मा के रूप में जीवित है तब तक मृत की सम्पति अन्य को कैसे प्राप्त हो सकती है ?' इसका अन्य संदर्भ (६।१२८-१२६) द्वारा यह भाव प्रकट होता है कि यह पुत्रिका (पुत्र के रूप में नियुक्त कन्या) के लिए लिखा गया है। मेधातिथि, नारायण एवं कुल्लूकने मनु (६।१३०) के 'दुहिता' शब्द को 'पुत्रिका' के अर्थ में ही लिया है। यास्क (निरुक्त ३।३-४) ने ऋग्वेद (३।३१।१) की व्याख्या करके, जिसको अन्य लोगों ने भी कन्या का रिस्थाधिकार सिद्ध करने के लिए आधार माना है, जो 'दुहिता' शब्द को भांति-भाँति से समझाने का प्रयत्न किया है, उससे लगता है कि उन्होंने पुत्रिका के रिक्थाधिकार की ओर संकेत किया है।१७ धीरेधीरे पुत्री को पुत्र के रूप में नियुक्त करना बन्द-सा हो गया, अतः विधवा के उपरान्त पुत्रहीन व्यक्ति की कन्या को उत्तराधिकारी समझा जाने लगा।
__याज्ञवल्क्य एवं विष्णु ने विधवा के उपरान्त पुत्री को उत्तराधिकारी माना है। नारद (दायभाग, ५०) ने पुत्र के पश्चात् कन्या को इस आधार पर रिक्थाधिकारी माना है कि वह पुत्र के समान ही मृत पिता के कुल को चलाने वाली होती है ।१८ जब नारद (दायभाग, २७) यह कहते हैं कि पुत्री को विवाह होने तक भरण का अधिकार है,
१७. अर्थतां दुहितदायाद्य उदाहरन्ति । पुत्रदायाद्य इत्येके । शासदह्रिर्दुहितुर्नप्त्य गात० (ऋ० ३।३१।१); प्रशास्ति वोढा सन्तानकर्मणे दुहितुः पुत्रभावम् । दुहिता दुहिता दूरे हिता दोग्धेर्वा । निरुक्त (३।३-४) ।
१८. पुत्राभावे तु दुहिता तुल्यसन्तानकारणात् । पुत्रश्च दुहिता चोभी पितुः सन्तानकारको ।। नारद (दाय
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