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स्त्रियों के दायाद-अयोग्यता कथन का अन्य तात्पर्य
में खटाखट बँट जाय, जैसा कि मुसलमानों में पाया जाता है । प्राचीन हिन्दू व्यवहार की यह विशेषता है कि मृत व्यक्ति की पृथक् सम्पत्ति स्त्रियों को मिल जाती है, अर्थात् वह सर्वप्रथम विधवा को, उसके पश्चात् उसकी पुत्री को प्राप्त होती है, तब कहीं व्यक्ति के अपने पिता या भाई या भतीजे को प्राप्त होती है। ऐसे प्रयत्न चलते रहे हैं कि आजकल विधान-सभा द्वारा यह व्यवहार बना दिया जाय कि पुत्रों के रहते विधवा एवं पुत्रियों को भी दायांश मिल जाय । सफलता भी मिली है। किन्तु इससे कुछ गड़बड़ियाँ भी उत्पन्न हो जायँगी, यों तो स्त्रियों के अधिकारों के विषय में जितना अधिक किया जाय उतना ही अधिक अच्छा प्रयत्न समझा जायगा। पर इस प्रक से विवाद उठ खड़े होंगे, भूमि-भाग खण्डित होते चले जायेंगे, जो कुछ प्राप्त होगा वह आर्थिक रूप से लाभदायक नहीं सिद्ध होगा और सम्भवतः यह सन्देहात्मक है कि इससे भारतीय समाज या राष्ट्र का हित होगा। क्या इसे हिन्दुओं का इतना लम्बा-चौड़ा समाज स्वीकार करेगा? अस्तू, प्रजापति का कथन है कि राजा को चाहिये कि वह उन सपिण्डों एवं बन्धओं को चोरों का दण्ड दे जो विधवा के समक्ष उसके पति की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त करने में बाधा डालें या कोई विरोध खड़ा करें।१६
तैत्तिरीय संहिता (६।५।८२) में स्त्रियों को जो 'निरिन्द्रिया' एवं 'अदाया' कहा गया है वह सोमयज्ञ के सिलसिले में कहा गया है, उसका तात्पर्य है कि वे सोमरस के भाग (दाय) के लिए अयोग्य हैं, उनमें इतना बल नहीं है कि वे उसे सँभाल सकें, अतः वे अदाया' हैं किन्तु बौधायनधर्मसूत्र ने सम्भवतः उसको अर्थ यों लगा लिया कि स्त्रियाँ रिक्थाधिकार से वंचित हैं। मनु (६१८)ने भी उसका सहारा लेकर घोषित कर दिया है कि स्त्रियों के संस्कार(विवाह को छोड़कर) वैदिक मन्त्रों द्वारा नहीं सम्पादित होने चाहिये, क्योंकि वेद ने उन्हें 'निरिन्द्रिय' एवं 'अनृत' घोषित किया है। बाद के लेखक, यथा हरदत्त (गौतम २८।१६, आप० ध० सू० २।६।१४।१) एवं व्य०प्र० (पृ० ५१७ एवं ५५४)ने भी वेद की इसी उक्ति के आधार पर स्त्रियों को रिक्थाधिकार से वंचित समझ लिया। उनका कथन है कि यद्यपि वेद-वचन बड़ा ही व्यापक एवं एक साथ सब बातों को समेट लेने वाला है, किन्तु यह केवल उन स्त्रियों को वंचित करता है जिन्हें स्मृतियों ने भी रिक्थाधिकार नहीं दिया है, एवं अन्यों को उसके योग्य ठहराया है,अर्थात् जिन्हें स्मृतियों ने रिक्थाधिकार के योग्य माना है उन्हें छोड़कर अन्य स्त्रियों के विषय में वेद के वचन मान्य हैं । यथा-दायभाग (११।६।११)ने बौधायन को उद्धृत कर टिप्पणी की है कि पत्नी को रिक्थाधिकार प्राप्त है, क्योंकि कुछ विशिष्ट स्मृतियों (याश० एवं विष्णु०) ने ऐसी व्यवस्था दी है। स्मृतिचन्द्रिका (२।२६४) का कथन है कि वैदिक उक्ति केवल अर्थवाद (निन्दा के लिए प्रयुक्त) है न कि परम नियम (विधि वाक्य), यह उन स्त्रियों के लिए नहीं है जिनके विषय में स्पष्ट उल्लेख है। यही बात 'व्यवहारप्रकाश' ने कही है। 'अपराक' (पृ०७४३) का कहना है कि वैदिक वचन केवल अर्थवाद है। वह स्त्रियों को पुत्रवती रहने पर ही वंचित करता है। यह जानने योग्य है कि पराशरमाधवीय (३, पृ० ५३६) ने 'तैत्तिरीय संहिता' के वचन को इस अर्थ में लिया है--"याज्ञिक (यज्ञ करने वाले या यजमान) की पत्नी को पानीवत प्याले में सोमरस लेने का अधिकार नहीं है और 'इन्द्रिय' का अर्थ है 'सोमरस' या 'सोमपीथ'।" किन्तु माधवाचार्य ने तैत्तिरीय संहिता (१।४।२७) की टीका में उसके वचन (६।५।८।२) को दूसरे ही अर्थ में लिया है--"स्त्रियाँ शक्तिहीन होने के कारण, सन्तानों के रहते रिक्थाधिकार नहीं प्राप्त करतीं।" यह एक विचारणीय बात है कि मिताक्षरा एवं व्यवहारमयूख ने स्त्रियों के रिक्थाधिकारों के विषय में विवेवन करते हुए 'तैत्तिरीय संहिता' एवं 'बौधायनधर्मसूत्र'काउल्लेख नहीं किया है। ऐसा नहीं कहा जा
१६. तत्सपिण्डा बान्धवाश्च ये तस्याः परिपन्थिनः । हिंस्युर्धनानि ताराजा चौर्यदण्डेन शासयेत् ॥ प्रजापति (स्मृतिच० २, पृ० २६४; वि० चि०, पृ० १५१) ।
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