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धर्मशास्त्र का इतिहास
है तो उसकी विधवा को अचल सम्पत्ति के अतिरिक्त सभी प्रकार की सम्पत्ति अर्थात आधि आदि (धरोहर आदि) प्राप्त हो जाती है। चल एवं अचल सम्पत्ति, सोना, साधारण धातु आदि, अन, पेय पदार्थ, वस्त्र प्राप्त कर लेने के उपरान्त उसे मासिक, पाण्मासिक एवं आब्दिक (वार्षिक) श्राद्ध करना पड़ता है। उसे अन्त्येष्टि क्रिया-कर्मो एवं पूर्तों (पवित्र कल्याणकारी कर्मों) द्वारा अपने पति के चाचा,गुरुओं (श्रद्धास्पदों), दौहित्रों, स्वस्त्रीयों (बहिन के पुत्रों) एवं मामाओं तथा बूढ़ों या असहायों, अतिथियों एवं स्त्रियों का सम्मान करना चाहिये।"१४ माधव (पराशरमाधवीय ३, पृ० ५३६) ने “स्थावरं मुक्त्वा" (अचल सम्पत्ति छोड़कर) का तात्पर्य यह निकाला है कि उसे बिना पुरुष सम्बन्धियों की सहमति के अचल सम्पत्ति बेचने का अधिकार नहीं है। व्यवहारमयूख (पृ० १३८) को भी यह व्याख्या मान्य है और आज के न्यायालयों ने भी इसे उचित माना है। कात्यायन (पृ० ६२१, ६२४-६२५) ने विधवा के अधिकार की सीमाओं को इस प्रकार व्यक्त किया है--"अपुत्र (पुत्रहीन) विधवा को, जो अपने पति की शय्या को पवित्र रखती है, गुरुजनों के साथ रहती है तथा स्व-नियन्त्रण में रहती है, (अपने पति की) सम्पति के उपभोग का अधिकार जीवन-पर्यन्त रहता है, उसके उपरान्त (उसके पति के) अन्य उत्तराधिकारियों का अधिकार रहता है । वह पत्नी, जो कुल के सम्मान की रक्षा करती है, आमरण पति का दायांश ग्रहण करती है, किन्तु उसे दान, क्रय एवं बन्धक रखने का अधिकार नहीं प्राप्त होता । वह विधवा, जो ब्रतोपवासनिरत रहती है, ब्रह्मचर्य-पालन करती है, व्यवस्थित रहती है तथा दान एवं दम में लगी रहती है, पुत्र हीन होने पर भी स्वर्गारोहण करती है ।१५ इन बातों से स्पष्ट है कि विधवा को पति को सम्पत्ति के उपभोग का अधिकार मृत्यु-पर्यन्त प्राप्त है, वह अचल सम्पति का दान, विक्रय एवं बन्धक कार्य तब तक नहीं कर सकती जब तक कि उसके बाद के उस सम्पति के उनरधिकारी ऐसा करने को न कहें, किन्तु धार्मिक एवं दान के कार्यों में या उसमें जिसमें उसके पति का पारलौकिक कल्याण निहित है, वह सम्पत्ति के व्यय में बड़े-बड़े अधिकार रखती है। आज भी इन नियमों का पालन होता है और इस विषय में न्यायालयों ने उचित निर्णय भी दिय हैं।
मिताक्षरा (२।१३५) के अनुसार यदि मृत व्यक्ति की कई विधवाएं हों तो वे आपस में बराबर-बराबर बांट लेती हैं (ताश्च वह्वयश्चेत्सजातीया विजातीयाश्च तदा यथाशं विभज्य गृह्णन्ति)।
यदि आपस में विभाजन करने के उपरान्त विधवाओं में एक मर जाय तो उसका भाग अन्य विधवा या विधवाओं को प्राप्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि विधवाओं में भी उतरजीवी का अधिकार पाया जाता है अर्थात् जब तक कोई-न-कोई विधवा जीवित रहती है या पुनर्विवाह नहीं करती तब तक पति की सम्पति पर किसी अन्य का अधिकार नहीं हो सकता। हिंदुओं में यह बात नहीं पायी जाती कि मरने के पश्चात् सम्पति कई सम्बन्धियों
१४. यद्विभक्ते धनं किञ्चिदाध्यादि विविध स्मृतम् । तज्जाया स्थावर मुक्त्वा लभते मतभत का ॥जंगम स्थावर हेम कुप्यं धान्यं रसाम्बरम् । आदाय दापयेच्छ्राद्धं मासषाण्मासिकाब्दिकम् । पितव्य गुरुदोहित्रान्मर्तु स्वस्त्रीयमातुलान् । पूजयेत्कव्यपूर्ताभ्यां बृद्धानाथातियीन स्त्रियः । बृहस्पति (स्मृतिच० २, पृ० २६१; वि० र० पृ० ५६०; मदनरत्न; व्य० मयूख पृ० १३७-१३८; पराशरमाधवीय ३, पृ० ५३६) ।
१५. अपुत्रा शयनं भर्तुः पालयन्ती गुरौ स्थिता । भुजीतामरगात्मान्ता दायादा ऊर्ध्वमाप्नुयुः॥ कात्यायन (दायभाग११।१।५६; स्मृतिच० ३, पृ० २६२; मृते भर्तरि भांश लभेत कुलपालिका । यावज्जीव न हि स्वात्यं रानाधमनविक्रये ।। व्रतोपवासनिरता ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता। दमदानरता नित्यमपुत्रापि दिवं व्रजेत् ॥ कात्या० (स्मृतिच० २, पृ० २६२; व्य० मयूख १० १३८)। और देखिये जीमूतवाहन का दायभाग (११११।५६)।
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