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________________ पत्नी के उत्तराधिकार को सीमा पाणिनि (४।१।३३) ने 'पति' के साथ जोड़कर 'पत्नी' का यह अर्थ लगाया है-'पति के साथ यज्ञ सम्पादन में सम्मिलित होने के योग्य ।' वही नारी पत्नी है जिसका पति के साथ धार्मिक परिणय हुआ हो। स्मृतिच० (२, पृ० २६०) ने उद्धरण देकर कहा है कि वह नारी जो धन द्वारा केवल संभोग के लिए प्राप्त की जाती है, दासी है न कि पत्नी, अतः वह पुत्रहीन मृत पति का उत्तराधिकार नहीं प्राप्त कर सकती।११ बृद्ध मनु का कथन है--'केवल वही पत्नी, जो पुत्रहीन है, अपने पति की शय्या को शुद्ध रखती है तथा ब्रत करती रहती है, अपने पति का पिण्डदान कर सकती है और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति पाती है।"१२कात्यायन (६२६)ने भी कहा है--'अव्यभिचारिणी पत्नी पति की सम्पत्ति पाती है।" जब रिक्थाधिकार निश्चित होता है उस समय विधवा को सदाचारिणी रहना परमावश्यक है। न्यायालयों के निर्णय दिया है कि जब एक बार विधवा को सम्पत्ति मिल जाती है तो (पति की मृत्यु के उपरान्त) लगाये गये दोषारोपण से उसका अपहरण नहीं हो सकता। यदि रिक्थाधिकार पाने के उपरान्त विधवा पुविवाह कर ले तो (यद्यपि अब १८५६ के १५ वें कानून के अनुसार विधवा-विवाह वैध माना जाता है) उसे पति का धन लौटा देना पड़ता है, या वह सम्पत्ति, जिसे उसने मृत पुत्र की विधवा माता के रूप में ग्रहण किया था, अब (पुनर्विवाह के उपरान्त)पति के अन्य उत्तराधिकारियों को या पुत्र को मिल जाती है, और यह समझा जाता है कि मानो वह मर चुकी है। यह नियम सभी वर्गों में समान रूप से लागू है (जब कि उनकी जाति के लोगों में परम्परा के अनुसार विवाह भी होता है तब भी यह नियम ज्यों-का-त्यों है)। दायभाग के अनुसार अप्रतिबन्ध दाय की मान्यता नहीं है, संयुक्त परिवार के पुत्रहीन सदस्य की विधवा को कुल-सम्पत्ति में दायांश मिलता है, वहाँ संयुक्त सम्पत्ति एवं पृथक् सम्पत्ति में कोई अन्तर नहीं है। ___ शूद्रों में यदि स्वामी पत्नी या पुत्री या पुत्री-पुत्र एवं कोई अवैध पुत्र छोड़कर मर जाता है तो न्यायालयों ने याज्ञ ० (२।१३४), मितालरा एवं दायभाग (६।३१) के अनुसार यह निर्णय दिया है कि विधवा या पुत्री या पुन्नी-पुत्र को आधा एवं अवैध पुत्र को शेषआधा प्राप्त होता है। विधवा के अपने पति से प्राप्त रिक्थ-सम्बन्धी अधिकार सीमित हैं। कौटिल्य (३।२) ने ही सम्भवतः सर्वप्रथम हिन्दू विधवा की सम्पत्ति की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है, और कात्यायन का एक कथन भी उनकी उक्ति के समान ही है।'३ अनुशासनपर्व (४७।२४) में आया है कि स्त्रियों को अपने पतियों के धन के उपभोग मात्र का अधिकार प्राप्त है, वे(दान, विक्रय आदि से) उसे नष्ट नहीं कर सकतीं । बहस्पति का कथन है-''जब पति अलग ११. क्रयक्रीता तु या नारी न सा पत्नी विधीयते । न सा दैवे न सा पिश्ये दासी तां कवयो विदः ॥ स्मृतिच० (२, २६०); व्य० प्र० (पृ० ४८८); क्रोता द्रव्येण या नारी सा न पत्नी विधीयते । सा न दैवे न सा पित्र्ये दासी तां काश्यपोऽब्रवीत् ॥ बौ० ध० सू० (१।११।२०)। ____१३. अपुत्रा शयन भर्तुः पालयन्ती ते स्थिता। पल्येव दद्यात् तत्पिण्डं कृत्स्नमशं लभेत च ॥ वृद्धमनु (मिताक्षरा, याज्ञ० २११३५; दायभाग ११।१।७; वि० र० पृ० ५८९; पत्नी भर्तुर्धनहरी या स्यादव्यभिचारिणी। कात्यायन (मिता० याज्ञ०, २११३५) । १३. अपत्रा पतिशयनं पालयन्ती गुरुसमीपे स्त्री धनमायुःक्षयाद् भुञ्जीत । आपदर्थ हि स्त्रीधनम् । ऊवं दायाद गच्छेत् । अर्थशास्त्र (३।२); स्त्रीणां स्वपतिदायस्तु उपभोगफलः स्मृतः । नापहार स्त्रियः कुर्यः पतिवित्तास्कथचन ।। अनुशासनपर्व (४७।२४; विवादचन्द्र पृ० ७१; विवादचिन्तामणि पृ० १५२; व्य० प्र० ४६१; दायभाग ६१६०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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