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________________ ६०८ धर्मशास्त्र का इतिहास जाती है, किन्तु यदि वह अधिक हो तो उसे-जीवन-वृत्ति मात्र मिलती है। किन्तु मिताक्षरा ने इस व्यवस्था का यह कह कर विरोध किया है कि यह याज्ञवल्क्य के कथन के विरुद्ध है । हमने देख लिया है कि याज्ञवल्क्य ने संयुक्त सम्पत्ति के विभाजन के समय भी अन्य पुत्रों के साथ पत्नी एवं माता को दायांश दिया है। इसके अतिरिक्त उनके अनुसार पत्नी को दायांश से विरत करने से 'विधि-वैषम्य' नामक दोष उत्पन्न हो जाता है। विधि वैषम्य'दोष के विषय में पूर्वमीमांसा ने एक निष्कर्ष दिया है-जब एक ही वाक्य की व्याख्या दो परिस्थितियों में दो भिन्न प्रस्तावों को उपस्थित करती है तो वह "विधिवैषम्य" दोष प्रकट करती है। याज्ञवल्क्य का एक ही कथन दो अर्थों में लिया जायगा; (१)जब पति लम्बीचौड़ी सम्पत्ति छोड़े तो पत्नी को जीविका मात्र की उपलब्धि होगी, (२) किन्तु यदि वह थोड़ी सम्पत्ति छोड़े तो उसकी पत्नी को पुत्र के दायांश के बराबर मिलेगा। एक अन्य मत स्मृतिसंग्रह एवं धारेश्वर का है--यदि पत्नी नियोग का आश्रय लेकर पति के लिए पुत्रोत्पत्ति करती है तो वह पुत्रहीन मृत पति की सम्पत्ति पा सकती है । इस मत को गौतम (२८1१६२०) एवं वसिष्ठ (१७।६५) के वचनों से बल मिला (वसिष्ठ ने सम्पत्ति-मोह के कारण नियोगआश्रय की वर्जना की है) । इस मत को मन (६१४६ एवं १६०) से भी बल मिला है। उनका कथन है कि एक भाई मृत भाई की पत्नी से पुत्र उत्पन्न कर अपने भाई का दायांश उसे दे देता है । मिताक्षरा, स्मृतिच० (२, पृ० २६४) एवं व्य० प्रकाश (५०४६५-४६७) ने इस मत का खण्डन किया है। मेधातिथि ने भी, जो सामान्यतः उदार लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं, प्रतिबन्ध लगाया है कि विधवा अपने मत पति का उत्तराधिकार नहीं प्राप्त कर सकती। मिताक्षरा ने श्रीकर, धारेश्वर आदि के मतों का खण्डन करके यह तय किया है कि यदि विधवा सदाचारिणी है तो वह अपने पुत्रहीन मृत पति की सम्पूर्ण सम्पत्ति की अधिकारिणी है।१० मिताक्षरा के उपरान्त अधिकांश लेखकों ने विधवा के उत्तराधिकार को मान्य ठहराया है। बहुत से लेखकों ने ऐसा कहा है कि विधवा के उत्तराधिकार के विषय में स्मृतियों के वचनों में बड़ा विरोध रहा है (दायभाग ११।१।१; मिताक्षरा २।१३५)। उन्होंने नाद्ध (दायभाग, २५-२६) की व्याख्या कर यह कहा है कि जहाँ केवल भरण-पोषण की व्यवस्था दी हुई है वहाँ यह समझना चाहिये कि वह रखैलों के लिए है या उनकी पत्नियों के लिए है जो पुनः संयुक्त होते हैं। ७. पिण्डगो..."नपत्यस्य । बीजं वा लिप्सेत। मौतम (२८1१६-२०) । धारेश्वर ने इसे इस प्रकार समझाया है--'स्त्री वा रिक्थं मजेत यदि बीजं लिप्सेत।' मिताक्षरा का कहना है कि इसका अर्थ यह है कि विधवा के समक्ष दो मार्ग खुले हैं; (१) वह पवित्र रह सकती है और सपिण्डों के साथ रिक्थाधिकार पा सकती है, या (२) वह नियोग का आश्रय ले सकती है। ८. मिताक्षरा पर सुबोधिनी ने निम्न टोका को है और स्पष्ट निष्कर्ष दिया है--यथा तत्रंकदेशिमते विधिवैषम्यं दोषस्तथा 'पल्या कार्याः समांशिकाः', 'माताप्यंश समं हरेत्' इत्यत्र च सकृदाम्नातौ अंशसमशब्दावपि भर्त बहधनत्वपक्षे 'भरणं चास्य कुर्वीरन्' इत्यादिवाक्यपर्यालोचनया जीवनोपयुक्तधनपरौ, स्वल्पधनत्वे तु वाक्यान्तरनरपेक्ष्येण नित्यवत्पुत्रांशसमांशपराविति श्रीकरायुक्तव्याख्यानेपि विधिवैषम्यदोषो दुर्वार इति । बाल भट्टी ने सुबोधिनी को अक्षरशः दुहराया है । यह न्याय दायभाग (११॥५॥१६) में भी आया है। ६. अतो यन्मेधातिथिना पत्नीनामंशभागित्वं निषिद्धमुक्तं तदसम्बद्धम-- पत्नीनामंशभागित्वं बृहस्पत्यादिसंमतम् । मेधातिथिनिराकुर्वन् न प्रोणाति सतां मनः ॥ कुल्लूक (मनु ६।१८७) । १०. तस्मादपुत्रस्य स्वर्यातस्य विभक्तस्याससृष्टिनो धनं परिणीता स्त्री संयता सकलमेव गृहृतीति स्थितम् । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१३५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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