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________________ अन्य उत्तराधिकारियों में पत्नी का स्थान ६०७ व्यवहाररत्नाकर पृ०५६३) ने व्यक्ति के भाइयों कन्याओं, पिता, सौतेले भाइयों, माता एव पत्नी को क्रम से रिक्थाधिकारी माना है। यह ज्ञातव्य है कि कालिदास के समय में पुत्रहीन पत्नी को अपने मृत पति का धन नहीं मिलता था, उसे केवल भोजन-वस्त्र मिलता था और सम्पत्ति पर राजा का अधिकार हो जाता था (अभि. शाकुन्तल, ६)। याज्ञवल्क्य एवं विष्णु ऐसे स्मृतिकार हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से घोषित किया कि पुत्रहीन व्यक्ति के मृत होने पर रिक्याधिकार सर्वप्रथम पत्नी को मिलना चाहिये । बृहस्पति ने पुत्रहीन व्यक्ति की पत्नी को प्रथम उत्तराधिकारी घोषित किया है और अपनी उक्ति के समर्थन में कारण भी दिये हैं--"वेद, स्मृतियों के सिद्धान्तों तथा लोकाचार द्वारा यह घोषित है कि पत्नी अर्धांगिनी है और है पुण्यों एवं पापों में आधी साझी। जिसकी पत्नी मृत नहीं है उसके (पति के) मरने पर उसका आधा शरीर जीवित रहता है। जब तक मृत व्यक्ति का आधा शरीर जीवित रहता है तब तक अन्य कोई सम्पत्ति कैसे पा सकता है ? भले ही सकुल्य (सम्बन्धी), पिता, माता या अन्य सम्बन्धी जीवित हों; पुत्रहीन मृत व्यक्ति की पत्नी को उसके भाग का उत्तराधिकार मिलता है। पति के पूर्व मरने वाली पत्नी पवित्र अग्नियों को साथ ले जाती है (अर्थात् यदि पति अग्निहोत्री है तो पत्नी वैदिक अग्नियों के साथ जलायी जाती है), किन्तु यदि पत्नी के पूर्व पति मत हो जाता है तो उसकी सम्पत्ति पतिव्रता पत्नी को मिलती है। पतिव्रता नारी की वन्दना करनी चाहिये, यही सनातन धर्म है।" ६ यद्यपि बहुमान्य स्मृतिकार याज्ञवल्क्य ने विधवाओं के उत्तराधिकार-सम्बन्धी प्रधान आधकार को घोषित कर दिया था, तब भी कुछ स्मृतियों एवं आरम्भिक टीकाकारों ने उसे नहीं माना । नारद (दायभाग २५-२६) ने व्यवस्था दी है कि जब कई भाइयों में कोई सन्तानहीन मर जाय या संन्यासी हो जाय तो अन्य भाइयों को स्त्रीधन छोड़कर उसकी शेष सम्पत्ति बाँट लेनी चाहिये, किन्तु उस (मृत भाई) की पतिव्रता विधवाओं का उनके जीवन भर भरण-पोषण करना चाहिये, किन्तु यदि वे व्यभिचारिणी हों तो उन्हें जीविका-वृत्ति से मुक्त कर देना चाहिये । नारद (दायभाग, ५०-५१) ने कहा है कि पुत्रों के न रहने पर पुत्री, सकुल्य, बन्धु, सजातीय एवं राजा क्रम से उत्तराधिकार पाते हैं । स्पष्ट है, यहाँ पत्नी सम्मिलित नहीं है । व्यास (हरदत्त द्वारा गौतम २८१६ की टीका में उद्धृत एवं स्मतिच० २, प०२८१) का कथन है कि यदि पति की सम्पत्ति २००० पणों से अधिक की न हो तो पत्नी उसे सम्पूर्ण रूप में ग्रहण कर सकती है। श्रीकर ने ऐसी व्यवस्था दी है कि यदि सम्पत्ति थोड़ी हो तो पत्नी उसे सम्पूर्ण रूप में पा १३५; अपराकं, पृ०७४१) । दायभाग (११११, १५पृ. १५४) ने इसे शंख-लिखित, पैठीनसि एवं यम का माना है और पत्नी के पश्चात् ‘सगोत्रशिष्यसब्रह्मचारिणः' जोड़ दिया है। किन्तु अपरार्क (१० ७४४) ने इसे शंख-लिखित एवं पठीनसि का माना है। मिताक्षरा ने व्याख्या की है कि 'भाइयों' का तात्पर्य है 'पुनः संयुक्त भाइयों ।' ६. आम्नाये स्मृतितन्त्रे च लोकाचारे च सूरिभिः । शरीराध स्मृता जाया पुण्यापुण्यफले समा। यस्य नोपरता भार्या देहाधं तस्य जीवति । जोवत्यर्धशरीरेऽर्थ कथमन्यः समाप्नुयात्॥ सकुल्यै विद्यमानस्तु पितृभ्रातृसनाभिभिः । असुतस्य प्रमीतस्य पत्नी तद्भागहारिणी॥ पूर्व मृता त्वग्निहोत्रं मृते भर्तरि तद्धनम् । विन्देत् पतिव्रता नारी धर्म एष सनातनः ॥ बृहस्पति (अपरार्क पृ०७४०-४१; दायभाग ११।१।२, पृ० १४६-१५०; कुल्लूक, मनु ६१८७; स्मृतिच० २, पृ० २६०-६१ ) । देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ६ एवं अध्याय ११, और शतपथब्राह्मण (५।२।१।१० एवं ८।७।२॥३); तैत्तिरीय संहिता (६।१।८।५); ऐतरेय ब्राह्मण (११३।५); शान्तिपर्व (१४४।६६); आदिपर्व (७४-४०) । वसिष्ठ (२१।१५) एवं पराशर (१०।२६) का कथन है--'पतत्य शरीरस्य यस्य भार्या सुरां पिबेत् । पतितार्धशरीरस्य निष्कृतिन विधीयते॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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