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धर्मशास्त्र का इतिहास के पति से कन्या का पुत्र उत्पन्न होता है, चाहे वह कन्या नियुक्त हो या न हो, तो नाना मानो पौत्र वाला हो जाता है, उस पुत्र (कन्या के पुत्र ) को नाना के लिए पिण्डदान करना चाहिये और नाना की सम्पत्ति लेनी चाहिये ।" मिताक्षरा' ने 'अकृता'शब्द को साधारण पुत्री के अर्थ में लिया है । किन्तु मेधातिथि एवं कुल्लूक ने कहा है कि 'कृता' शब्द का अर्थ है नियुक्त कन्या या पुत्रिका जिसके विषय में उसके पति से स्पष्ट समझौता हुआ है और 'अकृता' का अर्थ है वह पुत्री, (जिसे मानस रूप में पुत्र के समान माना गया है) जिसके विषय में कोई स्पष्ट समझौता नहीं हुआ है । बृहस्पति का कथन है, "जिस प्रकार अन्य बन्धुओं के रहते हुए भी पुत्री उत्तराधिकारी के रूप में पिता के धन का स्वामित्व पाती है उसी प्रकार उसका पुत्र भी माता की सम्पत्ति का स्वामी होता है।"२३
___ दौहित सम्पूर्ण सम्पत्ति में बराबर-बराबर भाग पाते हैं न कि दायांश के अनुसार। इसे यों समझिये; मान लीजिये क की ख एवं ग नामक दो पुत्रियाँ हैं, ख के तीन पुत्र एवं ग के दो पुत्र हैं, कुछ दिनों के उपरान्त क के जीवन काल में ख एवं ग की मृत्यु हो जाती है, ऐसी स्थिति में क के मरने के उपरान्त उसकी सम्पत्ति पाँच भागों में बँट जायगी और प्रत्येक दौहित्र को १/५ भाग मिलेगा।
दौहिव वास्तव में बन्धु एवं भिन्न-गोत्र सपिण्ड कहलाता है, किन्तु ऐतिहासिक कारणों एवं उसके द्वारा श्राद्ध कर्म सम्पादित होने से, धार्मिक योग्यता के कारण , उसे स्पष्ट स्मृति-वचनों के आधार पर उत्तराधिकारियों में बहुत बड़ा स्थान प्राप्त है।
माता-पिता-अपने पुत्र के उत्तराधिकारियों के रूप में माता-पिता के स्थान के विषय में मध्यकाल के निबंधों में मतैक्य नहीं है। याज्ञवल्क्य ने पुत्र के मर जाने के उपरांत उसके उत्तराधिकार के लिए माता एवं पिता की वरीयता के विषय में कोई संकेत नहीं किया है । 'विष्णुधर्मसूत्र' (१७॥४-१६) के आधार पर कुछ निबंधों ने पिता को माता के पूर्व रखा है।२३ मनु (६।२।७) का कथन है कि जब पुत्र संतानहीन मर जाता है तोमाता को धन मिल जाता है,किन्तु अन्यत्र (मनु ६१८५) आया है कि पिता पुत्र हीन व्यक्ति का धन लेता है और भाई भी ऐसा करते हैं। स्पष्ट है, मनु ने माता एवं पिता की वरीयता के विषय में निश्चयात्मक बात नहीं कही है। कात्यायन (६२७) कहते हैं--पत्रहीन व्यक्ति के उत्तराधिकारी ये हैं-अच्छे कुल की पत्नी,पुत्रियाँ,उनके अभाव में पिता,(तब) माता,भाई एवं (भाई के) पुत्र ।"बहस्पति यों कहते हैं--"जब पुत्र बिना अपनी पत्नी एवं पुत्र के मर जाता है तो उसकी माता उसका उत्तराधिकार पाती है या माता की अनुमति से भाई उत्तराधिकार पा सकता है।” इस द्वैध के साथ यह कहा जा सकता है कि 'मिताक्षरा' 'मदनपारिजात' 'सरस्वतीविलास, (पृ०४१६), विवादचिन्तामणि'व्यवहारप्रकाश'ने पिता की अपेक्षा माता को बरीयता दी है। किन्तु 'व्यवहारमयूख' ने पिता को ही वरीयता दी है । श्रीकर के मत से माता-पिता (जीवितावस्था में) साथ-साथ उत्तराधिकार पाते हैं (स्मृतिच० २, पृ० २६७)। किन्तु 'दायभाग' 'स्मृतिचन्द्रि का' आदि ने
२२. यथा पितृधने स्वाम्यं तस्याः सत्स्वपि बन्धुषु । तथैव तत्सुतोपोष्ट मातृमातामहे धने ॥ बृहस्पति (दायभाग ११।२।१७, पृ० १८०; व्यवहारप्रकाश पृ० ३२१)।
२३. विष्णुधर्मसूत्र (१७।४-१६) में आया है--अपुत्रधनं पल्यभिगामि। तदभावे-दुहितगामि । तवभावे पितृगामि । तदभावे मातगामि । तदभावे भ्रातृगामि । तदभावे भ्रातृपुत्रगामि । तदभावे बन्धुगामि । तबमावे सकुल्य गामि । तदमावे सहाध्यायिगामि । तदभावे ब्राह्मणधनवर्जे राजगामि । ब्राह्मणार्थो ब्राह्मणानाम् । वानप्रस्पधनमाचार्यो गृह्णीयाच्छिष्यो वा ॥ देखिये स्मृति च०, मदनरल, व्यवहारप्रकाश, पराशरमाधवीय, व्यवहारसार (५० २५२)।
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