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अध्याय २६
पुत्र के उपरान्त उत्तराधिकार का अनुक्रम यह पहले ही कहा जा चुका है कि दाय या तो अप्रतिबन्ध होता है या सप्रतिबन्ध, और पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र प्रथम प्रकार को ग्रहण करते हैं। यदि किसी को औरस या गौण पुत्र (अर्थात् दत्तक; अन्य प्रकार के गौण पुत्र या तो वजित हैं या अप्रचलित हो गये हैं) न हो तो सम्पत्ति एक विशिष्ट क्रम से दी जाती है । जब कोई पुत्रहीन मर जाता है और वह संयुक्त परिवार का सदस्य है तो शेष सहभागियों को पूरी सम्पत्ति मिलती रही है, किन्तु अब सन १६३७ के कानून (१६३७ के १८ वें कानून) के अनुसार विधवा को संयुक्त संपत्ति में पति का अधिकार प्राप्त हो जाता है। किन्तु यदि व्यक्ति अलग हो गया हो और उसे पुत्र हो तो उसके मरने के उपरान्त (यदि इसके पूर्व उसका पुत्र भी उससे अलग हो गया हो तो) उसकी सम्पत्ति उसके पूत्र वर्ग को समग्र रूप में मिल जाती है, अर्थात उसके पत्र, पौत्र (मृत पुत्र का पुत्र) एवं प्रपौत्र (मृत पुत्र के मृत पुत्र का पुत्र) साथ-हो-साथ उसके पृथक् रिक्थ को प्राप्त करते हैं । मनु (६।१३७ - वसिष्ठ १७।५ = विष्णु १५६४६) एवं याज्ञ० (१७८) से पता चलता है कि पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र बराबर रूप से आध्यात्मिक (पारलौकिक) फल देते हैं, अत: वे प्रमुख उत्तराधिकारियों के दल में आते हैं। मिताक्षरा के अनुल्लंघ्य सिद्धान्त के अनुसार पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र व्यक्ति के स्वाजित धन में जन्म से ही अधिकार रखते हैं, किन्तु वे उसके द्वारा उस सम्पति के विघटन के विषय में अधिकार नहीं रखते। यदि पुत्रों, पौत्रों या प्रपौत्रों में एक या अधिक उससे अलग हो गये हों तो उसकी मृत्यु के उपरान्त उसकी स्वाजित सम्पत्ति सर्वप्रथम उन पुत्रों, पौत्रों या प्रपौत्रों द्वारा ग्रहण की जायगी जो उसके साथ संयुक्त रहे हों, किन्तु यदि कोई भी संयुक्त न रहा हो तो पृथक् पत्र. पौत्र एवं प्रपौत्र समान रूप से ग्रहण करेंगे।
उपर्युक्त सिद्धान्त बहुत प्राचीन है। बौधायनधर्मसूत्र (१।५।११३-११५) ने कहा है कि व्यक्ति, उसके अपने भाई, सवर्ण पत्नी के पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र एक दल में आते हैं और अविभक्त-दाय सपिण्ड कहे जाते हैं। केवल इनके अभाव में ही किसी व्यक्ति का धन सकुल्यों में जाता है।'
यदि बिना पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र के व्यक्ति मर जाता है तो उसके उत्तराधिकार के विषय में याज्ञवल्क्य के दो श्लोक है ; २ "पत्नी, पुत्रियां (एवं उनके पुत्र), माता-पिता, भाई, उनके पत्र , गोत्र ज, बन्धु (सपिण्ड सम्बन्धी लोग),
१. अपि च प्रपितामहः पितामहः पिता स्वयं सोदर्या भ्रातरः सवर्गायाः पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रस्तत्पुत्रवजं तेषां च पुत्रपौत्रमविभक्तदायं सपिण्डानाचक्षते । विभक्तदायानपि सकुल्यानाचक्षते । असत्स्वन्येषु तद्गामी ह्यर्थो भवति । बौ० ध० स० (१।५।११३-११५)।
२. पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा । तत्सुता गोत्रजा बन्धुशिष्यसब्रह्मचारिणः ।। एषामभावे पूर्वस्य धनभागुत्तरोत्तरः । स्वर्यातस्य ह्यपुत्रस्य सर्ववर्णेष्वयं विधिः । याज्ञ० (२।१३५-१३६) । प्रथम पद्य लघहारीत (६४-६५) में भी पाया जाता है ।
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