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पूर्व-कुल के सम्बन्ध का दत्तक के विवाह, अशौच आदि पर प्रभाव
बम्बई के उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि दत्तक पुत्र अपने जनक-कुल में वजित पीढ़ियों तक विवाह नहीं कर सकता और उस समय यह नहीं कहा जा सकता कि वह उस कुल में नहीं उत्पन्न हुआ है, क्योंकि विवाह के वर्जन के लिए दोनों कलों में सपिण्ड-सम्बन्ध को मान्यता दी गयी है।
'निर्णयसिन्धु','धर्मसिन्धु' एवं 'दत्तकचन्द्रिका' (पृ० ४८-४६) ने घोषित किया है कि यदि जनक के पास मरते समय कोई पुत्र न हो या कोई अन्य उपयुक्त व्यक्ति न हो तो दत्तक पुत्र उसका श्राद्ध कर्म कर सकता है । 'निर्णयसिन्धु' एवं 'संस्कारकौस्तुभ' (पृ० १८५-१८६) का मत है कि जनक के मरने पर दत्तक पुन तीन दिनों तक सूतक मनाता है और यही उसके मरने पर उसका जनक करता है। 'दत्तकमीमांसा' एवं 'दत्तकचन्द्रिका' इसके विरोध में हैं, इनके अनुसार केवल-दत्तक अपने जनक एवं जनक-कुल के अन्य सम्बन्धियों के लिए सूतक नहीं मनाता । यदि विवाहित पुत्र वान् व्यक्ति का पुत्रीकरण हो (जैसा कि बम्बई में संभव है) तो पुत्रीकरण के पूर्व उत्पन्न उसका पुत्र जनक-कुल में ही रह जाता है और जिस कुल में वह जाता है उसके धन एवं गोत्र का अधिकार उसके पुत्र को नहीं प्राप्त होता। किन्तु उस पिता को, जो गोद द्वारा दूसरे कुल में चला गया है, गोद लिए जाने के पूर्व उत्पन्न पुत्र को, जो जनककुल में रहता है, दूसरे को दत्तक रूप में देने का अधिकार प्राप्त है । २०
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पुत्रीकृत पुत्र को (दत्तक पुन को) अपने जनक-कुल से रक्त-सम्बन्ध प्राप्त है। (इस कारण वह वजित पीढ़ियों तक उस कुल की कन्या से विवाह नहीं कर सकता), वे संस्कार जो जनक-कुल में सम्पादित हो चुके रहते हैं पुत्रीकरण के उपरान्त पुनः नहीं किये जाते, वह अपने जनक का गोत्र इस रूप में रखता है कि वह उस गोत्र वाली कन्या से विवाह नहीं कर सकता, और कुछ लेखकों के मत से वह अपने जनक-पिता का सूतक मना सकता है, अर्थात् उसका श्राद्ध कर सकता है । अतः यह स्पष्ट है कि पुत्रीकरण के उपरान्त उसका जनक-कुल से त्याग केवल कुछ ही सीमा तक है और वह है सीमित, केवल पिण्ड, रिक्थ एवं कुछ सम्बन्धित विषयों तक ही । वह त्याग सम्पूर्ण नहीं है, जैसा कि कुछ निर्णीत विवादों में प्रकट किया गया है।
दत्तक पुत्र औरस पुत के समान ही पालक-कुल में रिक्थाधिकार पाता है, अर्थात् वह न केवल अपने पालक का धन पाता है, प्रत्युत उसे अपने पालक पिता के भाई, चचेरे भाई आदि के भी दायांश प्राप्त हो सकते हैं (जबकि उनके पुत्र या अत्यन्त सन्निकट सम्बंधी न हों)। दत्तक पुत्र को उसकी पालिका एवं उसके (पालिका के) सम्बन्धियों यथा--पिता एवं भाई के उत्तराधिकार भी प्राप्त होते हैं । दूसरे अर्थ में यह कहा जा सकता है कि गोद लेनेवाली माता (पालिका) एवं उस माता के पिता के सम्बन्धी-गण उसे अपना धन देने के अधिकारी हो जाते हैं।"
वसिष्ठ एवं बौधायन ने व्यवस्था दी है कि यदि दत्तक लेने के उपरान्त औरस उत्पन्न हो जाय तो दत्तक को चौथाई भाग मिलता है । इस विषय में स्मृति-वचनों एवं निबन्धों में मतैक्य नहीं है । दायभाग(१०।१३,पृ०.१४८) ने एवं 'विवादचिन्तामणि' (पृ. १५०) ने कात्यायन को उद्धृत कर कहा है कि औरस उत्पन्न हो जाने के उपरान्त
१६. दत्तकस्तु जनकपितुः पुत्रायभावे जनकपितुः श्राद्धं कुर्याद्ध नं च गृह्णीयात् । जनकपालकयोरुभयोः पित्रोः सन्तत्यभावे दत्तको जनकपालकयोरुभयोरपि धनं हरेत, श्राद्धं च प्रतिवार्षिकमुभयोः कुर्यात् । धर्मसिन्धु (३, उत्तरार्ध
पृ० ३७१)।
२०. देखिये मातंण्ड--बनाम--नारायण आई० एल० आर० (१६३६) बम्बई, ५८६ (एम० बी०) ।
२१. दत्तकादीनां मातामहा अपि प्रतिग्रहोत्री यामाता तत्पितर एव पितृन्यायस्य मातामहेष्वपि समानत्वात् । रत्तकमी० (पृ० १६८); शुद्धदत्तकस्य तु प्रतिगृहीत्या एव मातुः पित्रादिपिण्डदानम् । दत्तकच ० (पृ० ६१) ।
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