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धर्मशास्त्र का इतिहास मनु (६।१४२) के कथन का सीधा अर्थ यह है--जब कोई दत्तक होने के लिए अपना पुत्र दे देता है तब उसके पुन का दूसरे कुल में स्थानान्तरण हो जाता है, वह दाता के लिए श्राद्ध एवं अन्य क्रियाएँ नहीं करता, और न उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके धन का अधिकारी होता और न विभाजन के समय कोई माँग उपस्थित कर सकता है । दाता के अन्य पुत्र या पुत्रों द्वारा उसके श्राद्ध-कर्म आदि सम्पादित होते हैं और वे ही कुल-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं। किन्तु बम्बई के न्यायालय ने इसे तोड़-मरोड़कर दो प्रकार के निर्णय दिये हैं जो परस्पर-विरोधी हैं। हम यहाँ पर इसके विवेचन में नहीं पड़ेंगे।
कुछ विषयों में जनक-कुल का गोत्र वर्तमान रहता है, जैसा कि निबन्धों के कथनों से व्यक्त होता है । 'संस्कारकौस्तुभ' (पृ० १८२) का कहना है कि दत्तक को विवाह करते समय अपने जन्म-कुल एवं पालक-कुल के गोलों से बचना अर्थात् दोनों का बर्जन करना चाहिये। धर्मसिन्धु (३, पृ० १६१) ने भी यही कहा है। इसके अनुसार जनक एवं पालक के कुलों की कन्या से विवाह करना सदा के लिए वर्जित है न कि सात या पाँच पीढ़ियों तक । अतः यदि पूर्णरूपेण गोत्र-सम्बन्ध न तो इसमें कोई तुक नहीं है कि पुत्रीकरण के पूर्व लिये गये रिक्थ का त्याग या अपहार किया जाय या रिक्थाधिकार का त्याग केवल भविष्य के लिए न किया जाय। निबन्धों में सपिण्ड-सम्बन्ध के विषय में मतैक्य नहीं है । दत्तकमीमांसा (पृ० १६७) के मत से द्वयामुष्यायण को तीन पीढ़ियों तक जनक एवं पालक के कुलों की सपिण्ड कन्या से विवाह न करना चाहिये । केवल दत्तक को सपिण्ड-सम्बन्ध अपने पालक के कुल में तीन पीढ़ियों तक मानना चाहिये (क्योंकि वह पालक के शरीर का कोई अंश अपने में नहीं पाता) और वही सम्बन्ध अपने जनक के कुल में सात पीढ़ियों तक मानना चाहिये। १८ निर्णयसिन्धु'(३,पूर्वार्ध, पृ० २६०-२६१) ने कई मतों का प्रकाशन करने के पश्चात् अपना मत दिया है कि विवाह में जनक एवं पालक के कुलों की सात पीढ़ियाँ देखनी चाहिये (पालक में यह पिण्डदान पर आधारित है) । व्य० मयूख (पृ० ११६) के मत से केवल-दत्तक का पालक-कुल में सपिण्ड-सम्बन्ध सात पीडियों तक तथा पालिका-कुल में पाँच पीढ़ियों तक रहता है । लगता है, इसके मत से जनक के कुल में कोई सपिण्डसम्बन्ध नहीं होता, जैसा कि मनु (६।१४२) ने कहा है । 'दत्तकचन्द्रिका' (पृ०६१-६६) ने संभवतः यह माना है कि यामुष्यायण को सपिण्ड-सम्बन्ध (दत्तकमीमांसा के मत की भाँति) मानना चाहिये, किन्तु केवल-दत्तक को पालककुल में सपिण्ड-सम्बन्ध सात पीढ़ियों तक मानना चाहिये, जैसा कि मनु (६।१४२) ने माना है। 'धर्मसिन्धु' (३, पृ० १६१) का कहना है कि सपिण्ड-सम्बन्ध की पीढ़ी-सम्बन्धी निर्भरता इस प्रश्न पर है कि पुत्रीकरण जनक-कुल में उपनयन के उपरान्त हुआ है या उपनयन के पूर्व, या जातकर्म से लेकर सभी संस्कार पालक-कुल में सम्पादित
१७. विवाहे तु दतकमात्रेण बीजिप्रतिग्रहीत्रोः पित्रोर्गोत्रप्रवरवर्जन कार्यम्। प्रवरमजर्यादिनिबन्धेषु तन्निषेधोक्तेः । संस्कारकौस्तुभ(पृ० १८२); विवाहे तु सर्वदत्तकेन जनकपालकयोरुभयोरपि पित्रोर्गोत्रप्रवरसम्बधिनी कन्या वर्जनीया। नात्र साप्तपौरुषं पाञ्चपौरुषमित्येवं पुरुषनियम उपलभ्यते । धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध पृ० १६१)।
१८. यदिदमुभयत्र त्रिपुरुषसापिण्ड्याभिधानं तद् द्वयामुष्यायणाभिप्रायेण त्रिकद्वयेन सपिण्डीकरणाभिधानात्। शुद्धदत्तकस्य तु प्रतिगृहीतकुले त्रिपुरुषं पिण्डान्वयरूपं सापिण्डयं जनककुले साप्तपौरुषमवयवान्वयरूपमेवेत्यलं प्रपञ्चेन । दत्तकमीमांसा (पृ० १८७); मम तु पालककुले एकपिण्डदानक्रियान्वयित्वरूपं साप्तपौरुषमेव सापिण्डयं बीजिनश्चेति गौतमोक्तेर्जनककुलेपि तावदेव । नि० सि. (३, पूर्वार्ध, पृ० २६१) ।
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