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पूर्व-कुल के साथ दत्तक के सम्बन्ध की मीमांसा
६०१ के उपरान्त अपने वास्तविक पिता का नाम नहीं लेता या व्यवहार करता, उसे उसकी सम्पत्ति भी नहीं मिलती और न वह उसकी अन्त्येष्टि क्रिया तथा श्राद्ध ही करता है। मनु के इस कथन के आधार पर एक विद्वान् हिन्दू न्यायाधीश ने यह फतवा दे दिया कि दत्तक सम्बन्धी सिद्धान्त दत्तक के जनक- कुल अर्थात् पितृ कुल एवं मातृकुल से सम्पूर्ण पृथक्त्व तथा पालक-कुल में सम्पूर्ण निवेशन ( मानो वह वहीं उत्पन्न हुआ था) पर निर्भर है । सम्पूर्ण पृथकत्व सम्बन्धी विचार के लिए यहाँ कोई आधार या प्रमाण नहीं है । किन्तु यह सिद्धान्त बहुत-से विवादों में मान्य हो गया और प्रिवी कौंसिल ने इसे स्वीकार भी कर लिया। एक दूसरे न्यायाधीश ने यह कह दिया--" सम्पूर्ण पुत्रीकरण मानो पालक - कुल में लड़के के जन्म होने जैसा है और जहाँ तक इस प्रकार के पुत्रीकरण से उत्पन्न वैध परिणामों का प्रश्न है, उस लड़के की जन्मकुल में सम्पत्ति सम्बन्धी (सिविल) मृत्यु भी है ।" प्रिवी कौंसिल को अन्त में सचेत करने के लिए यह लिखना पड़ा-" जैसा कि कई बार देखने में आया है, 'सम्पत्ति सम्बन्धी व्यवहारानुसार या सम्पत्ति के लिए मृत्यु या मानो वह कुल में उत्पन्न ही नहीं हुआ था' आदि बातें सभी प्रकार के प्रयोगों के लिए भ्रमपूर्ण हैं और तर्कसंगत नहीं हैं, वे केवल 'नये जन्म' के लिए औपचारिक मात्र हैं।" हमें यह जानना है कि प्रामाणिक निबन्धों ने ही मनु के कथन को इस प्रकार से रखा । व्य० मयूख ने मनु ( ६ । १४२ ) की व्याख्या करके निष्कर्ष निकाला कि गोत्र, रिक्थ, पिण्ड एवं स्वधा नामक चार शब्दों को शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिये, प्रत्युत उन्हें पिण्ड-सम्बन्धी परिणामों के अर्थ में ही लेना चाहिये, जो कि पुत्रीकरण के उपरान्त वास्तविक पिता से सम्बन्धित हैं, अर्थात् दत्तक होने के लिए पुत्र दे देने के उपरान्त जनक से उसका सम्बन्ध टूट जाता है । इसी प्रकार पुत्रीकरण के उपरान्त दत्तक का अपने वास्तविक भाई, चाचा आदि से सम्बन्ध टूट जाता है । 'व्यवहारमयूख' का कहना यह नहीं है कि दिये हुए पुत्र की जन्म-कुल में मृत्यु हो जाती है या उसका जन्म-कुल
किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रहता; प्रत्युत उसका केवल इतना ही कहना है कि दत्तक पुत्र हो जाने के उपरान्त जन्म-कुल में पिण्ड दान करने एवं जन्म-कुल की सम्पत्ति लेने के उसके अधिकार बन्द हो जाते हैं । स्मृतिच० (२, पृ० २८६) को उद्धृत कर 'दत्तकमीमांसा' ( पृ० १६३ - १६४) ने व्यवस्था दी है कि दत्तक हो जाने के उपरान्त पुत्र अपने दाता के गोत्र वाला नहीं रह जाता । ' ' यही बात 'दत्तकचन्द्रिका' ( पृ० २३-२४) ने भी बिना 'स्मृतिचन्द्रिका' का उल्लेख करते हुए कही है। विद्वान न्यायाधीशों ने प्रामाणिक ग्रन्थों को स्वयं न देखकर प्रत्युत कुछ अनुवादों के आधार पर ही जो चाहा सो निर्णय दिया है। वे इस विषय में असावधान से रहे हैं कि धर्मशास्त्र-ग्रन्थों ने दत्तक हो जाने के उपरान्त उसके पिण्ड एवं गोत्न तथा रिक्थ की परिसमाप्ति के विषय में क्या कहा है। 'सरस्वतीविलास' ( पृ० ३६४ ) ने विष्णु ० का उद्धरण देते हुए कहा है कि दत्तक पुत्र को भी अपने जनक की अन्त्येष्टि-क्रिया करने का अधिकार है । किन्तु मनु (६।१४२ के अनुसार यह तभी सम्भव है जब कि मृत्यु के समय उसके जनक को कोई पुत्र न हो । यही बात खादिरगृह्यसूत्र ( ३।५।६ ) की टीका में 'रुद्रस्कन्द' एवं 'निर्णयसिन्धु' के लेखक कमलाकर ने ( जो नीलकण्ठ के प्रथम चचेरे भाई एवं उनके समकालीन हैं) कात्यायन एवं लौगाक्ष ( प्रवरमंजरी में उल्लिखित, पृ० १४६ ) का हवाला देते हुए, कही है । धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० १६१ ) का कथन है कि जन्म-कुल में उपनयन हो जाने के उपरान्त कोई असगोत्र जब दत्तक बनता है या जब पालक द्वारा उपनयन मात्र कराया जाता है तो दत्तक को श्रेष्ठ जनों के आगे प्रणाम करते समय या श्राद्ध आदि कर्म में दोनों गोत्रों का उच्चारण करना चाहिये; किन्तु जब दत्तक के चौल से लेकर सारे संस्कार पालक के गृह में सम्पादित होते हैं तो उसका केवल एक अर्थात् पालक का ही गोव होता है ।
१६. एतेन पुत्रत्वापादकक्रिययैव दत्रिमस्य प्रतिग्रहीतृधने स्वत्वं तत्सगोत्रत्वं च भवति । दातृधने तु दानादेव पुत्रत्वनिवृत्तिद्वारा वत्रिमस्य स्वत्वनिवृत्तिर्दातृगोत्रनिवृत्तिश्च भवतीत्युच्यते इति चन्द्रिकाकारः । वत्तकमीमांसा पृ० १६३-१६४) ।
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