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धर्मशास्त्र का इतिहास पुत्रीकरण के संस्कार---पुत्रीकरण के अत्यन्त आवश्यक अंग हैं। जनक द्वारा पुत्रार्पण एवं पालक द्वारा पुत्रपरिग्रहण और इसके पीछे इस भावना का रहना कि अब पुत्र पालक के कुल का हो रहा है । कुछ विषयों में एक अन्य आवश्यक अंग है होम, जिसे दत्तकहोम कहा जाता है (जिसका उल्लेख शौनक एवं बौधायन ने किया है)। यह कोई आवश्यक नहीं है कि अर्पण एवं परिग्रहण के उपरान्त ही दत्तकहोम कर दिया जाय, जब अर्पणकर्ता एवं परिग्रहणकर्ता विधवा या शूद्रया कोई बीमार व्यक्ति या कोई अन्य हो तो यह कार्य किसी अन्य व्यक्ति द्वारा सम्पादित हो सकता है। यद्यपि वैदिक काल में नारियाँ मन्त्र-वक्ता होती थीं और हारीत एवं यम ने लिखा है कि स्त्रियों का उपनयन-संस्कार होता था और वे वेदाध्ययन कर सकती थीं। (देखिये इस ग्रंथ का भाग २, अध्याय ७), किन्तु कालान्तर में ऐसा समझा जाने लगा कि वे वेद नहीं पढ़ सकतीं, वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकतीं; अत: वे कोई होम नहीं कर सकतीं। इसी से कुछ लेखकों ने ऐसा कहा कि विधवा पुत्रीकरण कर ही नहीं सकती । किन्तु व्य० मयूख आदि में आया है कि विधवा शूद्र के समान ऐसा कर सकती है, अर्थात् जिस प्रकार शूद्र ब्राह्मण द्वारा दत्तक-होम करा सकता है, उसी प्रकार विधवा वैसा कर सकती है ।१४ (देखिये इस ग्रंथ का भाग २, अध्याय ७, जहाँ स्त्रियों की हीनावस्था के कारणों पर प्रकाश डाला गया है ।) ऐसा कहा गया है कि द्विजों में दत्तकहोम की कोई आवश्यकता नहीं है यदि परिगृहीत पुत्र पालक के गोत्र का है। 'दत्तकदर्पण' ने 'सरस्वतीविलास' से यम को उद्धृत कर कहा है कि सभी दशाओं में होम सर्वथा आवश्यक नहीं है। यही बात जगन्नाथ ने कही है (देखिये डा० जॉली; टैगोर लॉ लेक्चर्स, पृ० १६०, कोलब्रुक; डाइजेस्ट ४) । धर्म-सिन्धु का कथन है कि कुछ प्रदेशों में सगोत्र-सपिण्डों के लिए वैदिक संस्कारों के बिना भी पुत्रार्पग एवं पुत्र-ग्रहण वैध माना जाता है । इस विषय में आधुनिक न्यायालयों के मतों में एकता नहीं है और हम उनके उद्घाटन में नहीं पड़ेंगे। शूद्रों में होम की कोई आवश्यकता नहीं है । 'बौधायनगृह्य-शेषसूत्र' (२।६।४-६) में पुत्रीकरण के संस्कार का वर्णन है । देखिये दत्तकमी०, संस्कारकौमुदी (प.० १७७), धर्मसिन्धु (पृ० १६१) । शौनक ने जो विधि दी है वह बौधायन के बाद की है और उसमें थोड़ी भिन्नता भी है तथा वह ऋग्वेद के अनुयायियों के लिए है संस्कारकौस्तुभ, पृ० १७५) । व्यवहारमयूख (पृ० १२०-१२२) एवं धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० १६०-१६१) में विस्तार के साथ विधि दी गयी है। पाठक वहाँ देख लें।
पुत्रीकरण के परिणाम-गोद लेने से एक व्यक्ति का एक कुल से दूसरे कुल में जाना होता है । गोद लिए जाने पर दत्तक पुत्र को कुछ सम्यक् रूप से परिभाषित बातों को छोड़कर औरस पुत्र के समान ही पालक के कुल के अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । इस विषय में मनु (६।१४२) के निम्न वचन हैं-अपित पुत्र को अपने कुल के गोत्र का नाम एवं अपने जनक की सम्पत्ति नहीं लेनी चाहिये, पिण्ड (श्राद्ध के समय पितरों को दिया जाने वाला पके चावल का गोला) गोत्र एवं सम्पत्ति का अनुगमन करता है (अर्थात् इनमें सतत आनुषंगिक सम्बन्ध होता है); जो दत्तक देता है (अर्थात् जो अपना पुत्र देता है) उसकी अंतिम क्रिया समाप्त हो जाती है (अर्थात् दत्तक पुत्र उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया एवं श्राद्ध-कर्म आदि नहीं करता)।१५इससे स्पष्ट है कि दत्तक पुत्र को पालक की सम्पत्ति प्राप्त होती है, वह पुत्रीकरण
१४. यच्छुद्धिविवेक उक्तं वैदिकमन्त्रसाध्यहोमवति पुत्रप्रतिग्रहे शूद्रस्यानधिकार इति तपास्तम् । समन्त्रकहोमस्तु तेम विप्रद्वारा कार्यः ।......स्त्रिया अपि शूद्रवदेवाधिकारः । स्त्रीशूवाश्च सघर्माणः---इति वाक्यात् । व्य० म० (पृ० ११२)। और देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय १२ ।
१५. गोत्ररिक्थे जनयितुनं हरे दत्रिमः क्वचित् । गोत्ररिक्थानुगः पिण्डो ब्यपंति ददतः स्वधा ।। मनु (१४२)।
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