________________
दत्तक के पूर्व-कुल, अवस्था, गोत्र एवं दो पिताओं का विचार
८६६ ने व्यवस्था दी है कि द्वथामुष्यायण करने के पूर्व उपर्युक्त प्रकार के समझौते की सिद्धि उस विषय में भी होनी चाहिये जहाँ एक भाई अपने अन्य भाई के इकलौते पुत्र को अपनाता है(४२, बम्बई, २७७) । द्वयामष्या जनक एवं पालक के कुलों का रिक्थाधिकार पाता है। यह शब्द कुछ स्मतियों में दत्तक, क्रोत जैसे पुत्रों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है । १३ व्य० मयूख ने कात्यायन की उक्ति उद्धृत की है (जिसे दत्तकच ने पैठीनसि का माना है) । व्य० मयू०, दत्तक मी० एवं दत्तकच० ने ऐसी उक्ति (जिसे प्रथम ने प्रवराध्याय की तथा दूसरे ने पारिजात की माना है) उद्धृत की है, जो इसका समर्थन करती है । दत्तकमी० एवं दत्तकच ने सत्याषाढ के दो सूत्र (जिन पर शबर का भाष्य है) उद्धृत किये हैं, जिनमें क्षेत्रज को नित्य द्वयामुष्यायण तथा दत्तक एवं अन्य पुत्रों को अनित्य यामुष्यायण कहा गया है । याज्ञ० (२।१२७) एवं बौधायनधर्म (२।२।२।२१) के मत से क्षेत्रज, उत्पन्न करनेवाले एवं उस व्यक्ति का पुत्र होता है जिसकी पत्नी से वह उत्पन्न किया जाता है । अत: यह नित्य द्वयामुष्यायण कहलाता है क्योंकि वह सदैव दो पिताओं का पुत्र रहता है। जब क्षेत्रज पुत्र व्यवहारातीत एवं वजित मान लिया गया तो वही द्व यामुष्यायण रह गया जो समझौते के अनुसार जनक का एवं पालक का एक मात्र पुत्र कहलाता है। मनु (६।१४२) ने एक सामान्य नियम दिया है कि दत्तक अपने जनक के गोत्र का परित्याग करता है और पालक का गोत्र ग्रहण करता है। किन्तु कुछ लोगों के मत से दत्तक के दो गोत्र होते हैं; यदि चौल तक के संस्कार जनक के कुल में हुए हों तथा उपनयन एवं उसके उपरान्त के पालक के कुल में हुए हों तभी ऐसा होता है। अतः यह कोई सामान्य प्रस्ताव नहीं था कि दतक सदैव दो गोत्रों वाला होता है । यदि जातकर्म से लेकर सभी संस्कार पालक द्वारा सम्पादित होते हैं तो दतक पालक का गोत्र धारण करता है । इसी से दत्तक एवं क्रोत पुत्रों को अनित्य द्वयामुष्यायण (जो सभी स्थितियों में द्वयामुष्यायण नहीं होते) पुत्रों की संज्ञा मिली है। और देखिये दत्तकमी० (पृ० १८८-१८६) । क्षेत्रज कई शताब्दियों पूर्व अव्यवहार्य हो गया था, अब तो न्यायालयों द्वारा अनित्य द्वयामुष्यायण भी अप्रचलित घोषित कर दिया गया । अब ऐसी व्यवस्था है कि सिर्फ केवल-दतक ही दत्तक रूप में माना जायगा, जब तक कि यह समझौता सिद्ध न कर दिया जाय कि दत्तक पुत्र दोनों का है (वैसी स्थिति में वह द्वयामुष्यायण दत्तक कहा जायगा)।
जब कोई द्वयामुष्यायण के रूप में अपनाया जाता है तो उसका पुत्र, जो इस प्रकार के पुत्रीकरण के उपरान्त जन्म लेता है, पालक के पौत्र रूप में रिक्थाधिकार पाता है, किन्तु यह तभी होता है जब कि पालक के पूर्व ही द्वयामुष्यायण का देहान्त हो जाता है।
वधुद्वाभ्यां पिण्डोदके पृथक । रिक्षावधं समादधु/जिक्षेत्रिकयोस्तथा ॥ यहाँ यामुष्यायण के स्थान पर 'द्विः अव्यय के साथ आमुण्यायण शब्द प्रयुक्त हुआ है और 'द्विः' का अर्थ है 'दो बार' । द्वयामुष्यायण शब्द "द्वि' (दो) एवं 'आमुष्यायण' (इसका पुत्र या उसका पुत्र) से बना है। और देखिये तैत्तिरीय संहिता (२१७७७), अथर्ववेद (४।१६।६।१०।५३६ एवं ४४; १६७८), हारीतगृह्यसूत्र (१।६।१६), भारद्वाजगृह्यसूत्र (२।१६), पाणिनि (६।३।२१) पर कात्यायन का वार्तिक (२) । पाणिनि (४।१।६६) के अनुसार 'आमुष्यायण' 'अमुष्य' (इसका या उसका) से बना है और इसका तात्पर्य है 'अपत्य' (पुत्र ) आश्वलायनश्रौतसूत्र (उत्तरषट्क, ६।१३) में यामुष्यायण' के लिए 'द्विप्रवाचन' शब्द प्रयुक्त हुआ है ।
१३. यत्तु--अथ चेद्दत्तकक्रीतपुत्रिकापुत्राः परिग्रहेणानार्षेयास्ते यामुष्यायणा भवन्ति--इति द्वयामुष्यायणानुपक्रम्य कात्यायनः । व्य० म० (पृ० ११५); दत्तकच० (पृ० ४६) ने इसे पैठीनसि का माना है।
Jain Education International
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org