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________________ ८६८ धर्मशास्त्र का इतिहास कर दिया गया है) । बम्बई को छोड़कर अन्य प्रांतों में ऐसा कानून चलता रहा है। यद्यपि 'दत्तकमीमांसा' ने ऐसा कह दिया कि पुत्रीकरण के योग्य लड़के की उत्पति नियोग आदि से होनी चाहिये,किन्तु अन्य स्थान पर इसका कहना है जैसा कि शौनक एवं शाकल ने कहा था, कि पुत्री के पुत्र , बहिन के पुत्र एवं मौसी के पुत्र को छोड़कर किसी अन्य गोत्र वाले को भी दत्तक बनाया जा सकता है । बम्बई के उच्च न्यायालय ने उपयुक्त तीनों को छोड़कर किसी को भी दत्तक के योग्य ठहरा दिया है। इसके विचित्र-विचित्र परिणाम प्राप्त हुए हैं, यथा--किसी व्यक्ति द्वारा अपने सौतेले भाई के पुत्र को गोद लेना वैध है (बम्बई उच्च न्यायालय), कोई अपने मामा के पुत्र को गोद ले सकता है (वही), विधवा अपने मृत पति के दामाद को गोद ले सकती है (देखिये बम्बई हाईकोर्ट ३६, ४१०, ४७, ३५) । यह विचारणीय है कि 'द्वैतनिर्णय' या 'धर्मद्वैतनिर्णय' (नीलकण्ठ के पिता शंकर भट्ट द्वारा लिखित) एवं व्यवहारमयूख'ने कतिपय मीमांसा नियमों के आधार पर गूढ़तर्क द्वारा व्यवस्था दी है कि तीनों उच्च वर्गों के व्यक्ति पुत्री के पुत्र, बहिन के पुत्र या मौसी के पुत्र को गोद ले सकते हैं तथा शूद्र इन में से किसी को अन्य की अपेक्षा अवश्य गोद ले । बम्बई के उच्च न्यायालय ने नीलकंठ के स्थान पर नन्द पंडित द्वारा उपस्थापित शौनक के वचन की व्याख्या का अनुसरण किया है, किन्तु साथ हीसाथ नन्द पंडित की यह बात नहीं मानी है कि भाई या चाचा को गोद नहीं लिया जा सकता। अच्छा तो यह हआ होता कि वह नन्द पंडित के वचनों को सभी बातों में न मानता और मयूख की व्याख्या को ही मान्यता देता। सामान्य मनोवृत्ति पुत्री के पुत्र एवं बहिन के पुत्र के पक्ष में है, क्योंकि वे बहुत पास एवं अति प्रिय सम्बन्धी हैं,किन्तु बम्बई उच्च न्यायालय ने उनके लिए द्वार बन्द कर दिया है और भाई, मामा तथा उसके पुत्र या अपनी पुत्री के पति के लिए द्वार खोल दिया है, जो लोगों को असंगत लगता है। इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालयों ने पुत्री के पुत्र को देशस्थ स्मार्त ब्राह्मणों (धारवाड़ जिले के) एवं तैलंग ब्राह्मणों की परम्पराओं के आधार पर मान्यता दे दी है। पूरे भारत में शूद्र लोग अपनी पुत्री, बहिन या मौसी के पुत्र को गोद ले सकते हैं । 'दत्तकमीमांसा'ने आगे बढ़ कर यह व्यवस्था दे दी है कि विधवा अपने भाई के पुत्र को नहीं अपना सकती। यहाँ इस ग्रंथ ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह स्वतः ही ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने से विधवा ऐसा पुत्र बनाती है जिसका उसके पति से कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि उसके भाई की स्त्री से ( सरहज से) उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, इसके अतिरिक्त उसका (विधवा का) पति ऐसे पुत्र को स्वयं अपना सकता था । बम्बई के उच्च न्यायालय एवं प्रिवी कौंसिल ने 'दत्तकमीमांसा' के इस निरर्थक प्रस्ताव को ठुकरा दिया है । पन्नालाल ने अपनी पुस्तक 'कुमायूं लोकल कस्टम्स' में लिखा है कि भारत के उस भाग में पुत्री का पुत्र या बहिन का पुन दत्तक पुत्र बनाया जा सकता है । हाल में यह निर्णीत हुआ है कि शूद्रों में किसी स्त्री का अवैध पुन दत्तक नहीं बनाया जा सकता है (इण्डियन ला रिपोर्ट्स, १६४१, बम्बई ३५०) । लिंगायतों में कोई स्त्री अपने अवैध पुन को दत्तक होने के लिए नहीं दे सकती। इसी के आधार पर उपर्युक्त नियम बना है । द्वयामुष्यायण--दत्तक पुत्र के दो प्रकार हैं, केवल (साधारण) एवं व्यामुष्यायण (दो पिताओं का पुत्र ) । जब कोई इस समझौते के आधार पर दत्तक के रूप में अपना पुन देता है कि वह दोनों का (स्वाभाविक पिता अर्थात् जनक पिता तथा पालक का) पुत्र है तो ऐसे दत्तक पुत्र को द्वयामुष्यायण कहा जाता है। १२ बम्बई उच्च न्यायालय १२. अयं च दत्तको द्विविधः केवलो द्वयामुष्यायणश्च । सविदं विना दत्त आद्यः । आवयोरसाविति संविदा दत्तस्त्वन्त्यः। व्य० म० (पृ० ११४) । दत्तकचंद्रिका (पृ० ६१,६६) ने केवल दत्तक के लिए शुद्धवत्तक शब्द प्रयुक्त किया है । हमने ऊपर देख लिया है (अध्याय २७)कि मिताक्षरा में द्वयामुष्यायण एवं क्षेत्रज को समानार्थक या पर्याय वाची माना है। नारद (दायभाग, २३)ने भी सम्भवतः इसी अर्थ में इसे प्रयुक्त किया है, यथा-द्विरामुष्यायणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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