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दत्तक होने की अवस्था; पुत्र-सादृश्य के अर्थ में मतिभ्रम
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भी कोई पुत्र उत्पन्न हो गया हो ।" " बंगाल, वाराणसी ( उ० प्र० ) एवं बिहार के न्यायालयों ने निर्णय दिया है कि उपनयन के पूर्व पुत्रीकरण हो जाना चाहिये । यही बात मद्रात में जो है, किन्तु वहां यह व्यवस्था है कि यदि दत्तक लिया जानेवाला लड़का सगोत है तो उसका पुत्रीकरण उपनयन के उपरान्त भी, किन्तु विवाह के पूर्व, हो सकता है। बम्बई में दत्तक की कोई भी अवस्था वैध मानी जाती है, विवाह के उपरान्त भी, यहां तक कि उसे पुत्र उत्पन्न हो गया हो तब भी, इतना ही क्यों, वह अवस्था में गोद लेनेवाले से ऊँची अवस्था का भी हो सकता है । सम्पूर्ण भारत शूद्र का पुत्रीकरण विवाह के पूर्व ही होता है, किन्तु बम्बई में ऐसी बात नहीं है, वहाँ शुद्रों में भी विवाहोपरान्त तथा पुत्रवान होने पर भी पुत्रीकरण सम्भव है ।
शौनक के मत से दत्तकपुत्र को पुत्रच्छाया वह ( वह जो औरस के समान या उसका प्रतिबिम्ब हो ) होना आवश्यक है । ११ इसकी कई व्याख्याएँ उपस्थित की गयी हैं और बहुत-से उच्च न्यायालयों ने विभिन्न निर्णय दिये हैं। दतकमीमांसा एवं दत्तकचन्द्रिका ने व्याख्या की है कि सादृश्य तो पुत्रीकरण करनेवाले के द्वारा नियोग या अन्य प्रकार से पुत्रोत्पत्ति करने से ही संभव है । 'दत्त कमीमांसा' ने यह अर्थ लगाया है ; भाई का पुत्र, सपिण्ड पुत्र एवं सगोत्र पुत्र गोद लिया जा सकता है, क्योंकि नियोग की विधि के अनुसार गोद लेनेवाला (पुत्रीकरण कर्ता) भाई, सपिण्ड एवं सगोत की पत्नी से पुत्र उत्पन्न कर सकता था, किन्तु वह अपनी माता या पितामही या कन्या या बहिन या मौसी ( माता की बहिन ) से ऐसा नहीं कर सकता था । अतः कोई अपने भाई, मामा या चाचा, पुत्री के पुत्र, मौसी के पुत्र आदि का पुत्रीकरण नहीं कर सकता है । यह आश्चर्य है कि 'दत्तकमीमांसा' से बहुत पहले ( शताब्दियों पूर्व ) नियोग प्रथा का प्रचलन बन्द हो गया था (देखिये इस ग्रंथ का भाग २ अध्याय १३), तथापि इसके लेखक ने उसे अन्य प्रचलित नियमों के साथ जोड़कर दत्तक करने या न करने योग्य व्यक्तियों के विषय में उल्लिखित कर दिया। इससे भी आश्चर्यजनक यह बात हुई कि सदरलैण्ड ने जिन्होंने 'दत्तकमीमांसा' एवं 'दत्तकचन्द्रिका' का अनुवाद उपस्थित किया है, अपनी टिप्पणियों में 'नियोगादिना'
"इस प्रकार की नियुक्ति या विवाह एवं अन्य ऐसी ही समान विधियों के द्वारा" के अर्थ में ले लिया है। देखिये स्टोक कृत 'हिन्दू लॉ टेक्स्ट्स' ( पृ० ५६० ) । 'विवाह' को 'नियोग' के उपरान्त जोड़ने का कोई औचित्य नहीं था । विवाह के नियमों एवं नियोग के नियमों में भिन्नता है। न्यायाधीशों ने, जिनमें अधिकांश संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ रहे हैं, इस अर्थ को प्रमात्मक ढंग से ग्रहण कर लिया और कह दिया कि उस व्यक्ति का पुत्रीकरण नहीं हो सकता जिसकी माता से उसके होने वाले पिता का कुमारी की अवस्था में सम्बन्ध न रहा हो ( यहाँ विवाह के पूर्व संसर्ग की ओर संकेत
१०. दत्तस्तु परिणीत उत्पन्नपुत्रोपि च भवतीति तातचरणाः । युक्तं चेदं बाधकाभावात् । व्यव० म० ( पृ० ११४) । जब नीलकण्ठ ऐसा कहते हैं कि 'कालिकापुराण' के तीनों श्लोक असगोत्र लड़के के पुत्रीकरण की ओर संकेत करते हैं, तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे अपना मत प्रकाशित करते हैं, उनका केवल इतना ही कहना है कि ये यदि कुछ कहते हैं तो वह असगोत्र लड़के के पुत्रीकरण के विषय में है, एवं च "चूडाया इत्यतद्गुणसं विज्ञानबहुव्रीहिणा द्विजातीनामुपनयनलाभः शूद्रस्य तु विवाहादिलाभः । दत्तकच ० ( पृ० ३६ ) |
११. पुत्रच्छाया पुत्र सादृश्यं तच्च नियोगादिना स्वयमुत्पादनयोग्यत्वं यथा म्रातृसपिण्डस गोत्रादिपुत्रस्य । न चासम्बन्धिनि नियोगः सम्भवः । बीजार्थ ब्राह्मणः कश्विद्धनेनोपनिमन्त्रयतामिति स्मरणात् । ततश्च भ्रातृपितृव्यमालदौहित्र भागिनेयादीनां निरासः पुत्रसादृश्याभावात् । तथा प्रकृते विरुद्धसम्बन्धपुत्रो वर्जनीय इति । यतो रतियोगः सम्भवति तादृशः कार्य इति यावत् । दत्तकमी० ( पृ० १४४ - १४५ एवं १४७ ) । और देखिये दत्तकच ० ( पृ० २१ ) एवं आदिपर्व ( १०५।२ ) ।
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