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धर्मशास्त्र का इतिहास
सगोत्र न हो, यथा मामा का पुत्र या फूफी का वंशज),सगोत्र-असपिण्ड , एवं वह जो न तो सपिण्ड हो और न सगोत्र। यह अनुक्रम केवल अर्थवाद है, इसके प्रतिकूल भी पुत्रीकरण वैधानिक होता है। यह हाल में निर्णीत हुआ है कि वह पुत्रीकरण अवैध है जिसमें जन्म से असाध्य रूप से बधिर एवं मूक (यद्यपि मूर्ख नहीं) पुत्र ग्रहण किया जाता है। देखिये सुरेन्द्र-बनाम भोलानाथ (आई० एल० आर०, १६४४, १, कलकत्ता १३६) ।
मध्यकाल के लेखकों में दत्तक पुत्र की अवस्था के विषय में गहरा मतभेद पाया जाता है। इस विषय में कालिका पुराण के पद्य अति महत्वपूर्ण हैं । ६ व्य० मयूख एवं दत्तक च० का कथन है कि कालिकापुराण के ये पद्य प्रामाणिकता में सन्दिग्ध हैं, क्योंकि ये कुछ अन्य प्रतियों में नहीं पाये जाते,किन्तु दत्तकमी०एवं निर्णयसिन्धुने इन्हें शुद्ध एवं प्रामाणिक माना है. और संस्कारको० (पृ० १६६-१७२) ने इन पद्यों की ओर संकेत करके कहा है कि ये पद्य ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शनःशेपकी कथा के विरुद्ध पड़ते हैं, जिसमें यह आया है कि विश्वामित्र ने शनःशप को उसके उपनयन के उपरांत भी गोद लिया । कालिकापुराण के पद्यों का अर्थ यह है-“हे राजन,वह पुत्र,जिसके चूड़ाकरण से लेकर अन्य संस्कार उसके अपने पिता के गोत्र के साथ सम्पादित हैं,किसी अन्य द्वारा प्रतिगृहीत पुत्र की स्थिति नहीं प्राप्त कर सकता। जब चूड़ाकरण एवं उपनयन के संस्कार उसके अपने गोत्र (दत्तक लेने वाले पिता) द्वारा किये जाते हैं तो दत्तक तथा अन्य प्रकार के पुत्र गोद लेने वाले के कुल के पुत्र कहे जाते हैं,नहीं तो वे दास की संज्ञा पाते हैं। पाँच वर्ष के उपरांत दत्तक एवं अन्य पुत्र पुत्रता नहीं प्राप्त कर सकते। पाँच वर्ष के लड़के को गोद लेने के पूर्व गोद लेने वाले को पत्रष्टि का सम्पादन करना चाहिये ।" इन पद्यों में चार बातें उठती हैं,(१) यदि जातकर्म से लेकर चड़ाकरण तक के सारे संस्कार जन्मकूल में सम्पादित हो गये रहते हैं तो ऐसे पुत्र को प्रतिगहीत नहीं किया जा सकता, (२) यदि लड़के का चूड़ाकरण एवं अन्य संस्कार गोद लेने वाले के घर में सम्पादित हुए हों तो वह पूर्णरूपेण दत्तक पुत्र कहलाएगा, (३) पाँच वर्ष के ऊपरवाला लड़का दत्तक नहीं बनाया जा सकता, (४) यदि लड़के का चूड़ाकरण जन्मकुल में हो गया हो तो वह पाँच वर्ष की अवस्था तक दत्तक बनाया जा सकता है,किन्तु ऐसा करने के लिए उसके अन्य संस्कार के सम्पादन के पूर्व पुत्रेष्टि के क्रिया-संस्कार अवश्य हो जाने चाहिये । दत्तकमीमांसा के मत से पुत्रीकरण के लिए तीन वर्ष के भीतर सर्वोत्तम काल है, तीन वर्ष से पाँच वर्ष तक गौण काल है और पाँच वर्ष के उपरान्त पुत्रीकरण नहीं हो सकता। दत्तकचन्द्रिका (पृ० ३६) का कथन है कि तीन उच्च जातियों का लड़का उपनयन तक पुत्रीकरण के योग्य है, किन्तु शूद्र का लड़का विवाह के पूर्व तक इसके योग्य है । सम्भवतः यही मत निर्णयसिन्धु का भी है । 'व्यवहारमयूख'एवं संस्कारकौस्तुभ' का कथन है कि कोई असगोत्र लड़का भी उपनयन या विवाह के उपरान्त भी गोद लिया जा सकता है, भले ही उसको
६. पितुर्गोत्रेण यः पुत्रः संस्कृतः पृथिवीपते । आचूडान्तं न पुत्रः स पुत्रतां याति चान्यतः॥ चूडोपनयसंस्कारा निजगोत्रेण व कृताः। दत्ताद्यास्तनयास्ते स्युरन्यया दास उच्चते ॥ ऊवं तु पञ्चमाद्वर्षान्न दत्ताद्याः सुता नृप। गृहीत्वा पंचवर्षीय पुत्रेष्टि प्रथम चरेत् ।। कालिकापुराण (दत्तकमी०, पृ० १२२, निर्णयसिन्धु , ३, पूर्वार्ध, पृ. २५०, व्य० म०, पृ० ११४; दतकच. ३१-३३; सं० कौ०, पृ. १६६)। चूडाकरण संस्कार बहुधा तीसरे वर्ष में किया जाता है, बच्चे के सिरपर जो शिखा या केश-गुच्छ छोड़े जाते हैं वे पिता के गोत्र के प्रवर ऋषियों की संख्या पर निर्भर रहते हैं । देखिये इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग का अध्याय ६, जहाँ चूडाकरण का वर्णन है । अतः यदि ऐसा पुत्र, जो असगोत्र है, चूडाकरण के उपरान्त गोद लिया जाता है, तो उसकी स्थिति यों होगी कि उसके कुछ संस्कार एक मोत्र के साथ हुए होंगे तथा अन्य संस्कार दूसरे गोत्र से, अर्थात् वह इस प्रकार दो गोत्रों का कहा जायगा । इसे दूर करने तथा गोद वाले कुल से सम्बन्ध जोड़ने के लिए पुत्रेष्टि संस्कार परमावश्यक है।
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