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________________ कन्या भी दत्तक; दत्तक की योग्यता ८६५ कल्लक जैसों की बात मानी है। यह सम्भव है कि आज के न्यायालय प्रमुख चार वर्णों की उपजातियों के लिए छट दे दें, अर्थात् किसी वर्ण की उपजाति का कोई व्यक्ति उसी वर्ण की किसी उपजाति के पुत्र को गोद ले ले, आज ऐसा निर्णय दिया जा सकता है। शौनक एवं वृद्ध याज्ञवल्क्य (दत्तकचन्द्रिका द्वारा उद्धृत)ने व्यवस्था दी है कि दत्त अन्य जाति का हो सकता है, किन्तु ऐसे पुत्र को सम्पत्ति नहीं प्राप्त होती । वसिष्ठ (१५॥३) एवं शौनक के शब्दों (इकलौते पुत्र को नहीं देना चाहिये) के रहते हुए भी न्यायालयों ने निर्णय दिया है कि इकलौता पुत्र लिया या दिया जा सकता है। ज्येष्ठ पुत्र को दत्तक रूप में नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जैसा कि मिताक्षरा (याज्ञ० २।१३०) का कथन है, ज्येष्ठ पुत्र ही अपने जनक पिता के लिए पुत्र रूप में सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता है और पुत्र द्वारा किये जानेवाले उपयोगों को पूरा करनेवाला है । मनु (६१०६) का कथन है--"अपने ज्येष्ठ पुत्र की उत्पत्ति से व्यक्ति पुत्रवान् (पिता) कहा जाता है और पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। किन्तु आजकल यह नियम केवल अर्थवाद के रूप में लिया जाता है न कि विधि के रूप में, अर्थात् इसे हम नहीं भी मान सकते हैं, क्योंकि इसके पीछे अनिवार्यता नहीं है। व्यवहारमयूख (पृ० १०८) का कथन है--मिताक्षरा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को दत्तक रूप में देने में जो निषिद्धता प्रकट की गयी है, वह केवल देने वाले के सम्बन्ध में है न कि लेनेवाले (गोद लेने वाले) के सम्बन्ध में। व्यवहारमयूख ने मिताक्षरा की आलोचना करते हुए कहा है कि मनु (६।१०६) ने ज्येष्ठ पुत्र को देना वजित नहीं किया है बल्कि यह व्यवस्था दी है कि प्रथम बार पुत्र उत्पन्न होने से व्यक्ति पित-ऋण से मुक्त हो जाता है। अतः व्यवहारमयुख ने आगे बढ़ कर यह कहा है कि ज्येष्ठ पुत्र को लेने एवं देने में कोई वर्जन नहीं है, किन्तु मिताक्षरा (जिसने गोद लेना बुरा नहीं माना है) का कथन है कि देनेवाला पापी होता है । संस्कारकौस्तुभ (पृ० १५०) ने भी ज्येष्ठ पुत्र को दत्तक रूप में देना वर्जित किया है। दो व्यक्ति एक ही पत्र को गोद नहीं ल सकते। ऐसा करने पर प्रत्येक का पत्न-प्रतिग्रहण अवैधानिक है ( दत्त० मी०, पृ० २५) । इस विषय में द्वयामुष्यायण एक अपवाद है, जिसके बारे में आगे लिखा जायगा। जब कई बच्चे दत्तक के योग्य हों तो उनके चुनाव के विषय में कुछ स्मृति-नियम है। मनु (६१८२)का कथन है--"यदि एक ही पिता के कई पुत्र हों और उनमें किसी को एक पुत्र हो तो वह सबको पुत्रवान् बना देता है।" मिताक्षर। (याज्ञ० २।१३२) ने मनु के इस कथन से यह अर्थ निकाला है कि वह एक पुत्र सबका पुत्र नहीं हो जाता, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उसके रहते अन्य पुत्र दत्तक रूप में नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार की व्याख्या एक पुराने टीकाकार देवस्वामी ने भी की है। दत्तकमीमांसा, दत्तकचन्द्रिका (पृ० ५-६) एवं संस्कारकौस्तुभ (पृ० १५०) ने शौनक एवं शाकल के मत को उद्धृत कर कहा है कि सपिण्ड एवं सगोत्र को असपिण्ड तथा असगोत्रकी अपेक्षा वरीयता देनी चाहिए। उपयुक्त ग्रन्थों एवं धर्मसिन्धु ने निम्न अनुक्रम दिया है--अपने भाई का पुत्र, सगोत्र-सपिण्ड (भले ही वह ७. यदि स्यादन्यजातीयो गृहीतोपि सुतः क्वचित् । अंशभाजं न तं कुर्याच्छौनकस्य मतं हि तत् ॥...... व्यक्तमाह वृद्धयाज्ञवल्क्यः । सजातीयः सुतो ग्राह्यः पिण्डदाता स रिस्थभाक् । तदभावे विजातीयो वंशमात्रकरः स्मृतः । ग्रासाच्छादनमात्रं तु लभते स तद्रिक्थिनः ।। इति दत्त० च० (पृ० ७)। ८. यत्त --भ्रातृणामेकजात्यानामेकश्चेत्पुत्रवान्भवेत् । सर्वे ते तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ।। इति, (मनु ६१८२) तदपि भ्रातृपुत्रस्य पुत्रीकरणसम्भवेऽन्येषां पुत्रीकरणनिषेधार्थम् । न पुनः पुत्रत्वप्रतिपादनाय, तत्सुता गोत्रजा बन्धुरित्यनेन विरोधात् । मिता० (याज्ञ० २।१३२) । और देखिये वसिष्ठ (१७११०); व्य० नि० (पृ० ४४०); विष्णु० (१५।४२); स्मृतिच० (२, पृ० २८६); सरस्वतीविलास (पृ० ३६५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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