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धर्मशास्त्र का इतिहास
ग्रन्थों, यथा व्यवहारमयूख (पृ० ११३), निर्णयसिन्धु (३, पूर्वार्ध पृ० २४६) एवं धर्म सिन्धु के मत से वसिष्ठ का वचन केवल उस पत्नी की ओर संकेत करता है जिसका पति अभी जीवित है और विधवा बिना पति की आज्ञा के पुत्रीकरण कर सकती है । इस सम्प्रदाय के अनुसार पति का पुत्रीकरण-सम्बन्धी अधिकार सदा कल्पित कर लेना चाहिये, जब तक कि उसने स्पष्ट रूप से या आवश्यकतावश दत्तक लेने से अपनी विधवा को मना न कर दिया हो। अप्रतिषिद्धं परमतमनुमतं भवति' न्याय के अनुसार 'दत्तकचन्द्रिका' ने मत प्रकाशित किया है कि दूसरे (या विरोधी) का मत (जब तक कि उसने विरोध न किया हो) स्वीकृति रूप में ग्रहण कर लेना चाहिये ।
गोद लेने के अधिकार-निर्माण, सपत्नियों के पुत्र-प्रतिग्रहण (गोद-लेने) के अधिकार एवं गोद लेने में विधवा के अधिकार की सीमाओं के विषय में बहुत-से कानून आधुनिक काल में उद्धृत किये गये हैं, जिन्हें हम स्थानाभाव से यहाँ नहीं दे रहे हैं और न उनकी इस ग्रन्थ में कोई आवश्यकता ही है।
गोद (पुत्र-प्रतिग्रहण या दत्तक होने) के योग्य व्यक्ति--जैसा कि प्राचीन ग्रन्थों में आया है कि ('अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत) आठवें वर्ष में उपनयन होना चाहिये, व्यवहारमयूख' (पृ० १०८-१०६) ने इसके आधार पर केवल पुरुष वर्ग को ही दत्तक योग्य माना है । भारतीय न्यायालयों ने इस बात को मान लिया है। किन्तु 'दत्तकमीमांसा' (पृ० ११२-११६), 'संस्कारकौस्तुभ' (पृ० १८८) एवं 'धर्मसिन्धु' ने दशरथ की पुत्री शान्ता (जिसे लोमपाद ने गोद लिया था) एवं पृथा (जो शूर की कन्या थी और जिसे कुन्तिभोज ने गोद लिया था) के उदाहरणों के आधार पर कहा है कि कन्या भी दत्तक रूप में प्रतिगृहीत हो सकती है। पन्नालाल ने अपनी पुस्तक 'कुमायू लोकल कस्टम्स' में लिखा है कि कुमायू में परम्परा के अनुसार कन्या भी गोद ली जाती है । दत्तक पुत्र गोद लेनेवाले की जाति का होना चाहिये । याज्ञ० (२।१३३) ने जो यह व्यवस्था दी है कि बारहों प्रकार के पुत्र पिण्डदान करते है और क्रम से सम्पत्ति के अधिकारी होते है, उससे यह प्रकट है कि वे सभी पिता की जाति के होते हैं । मेधातिथि ने स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मण क्षत्रिय को भी गोद ले सकता है। किन्तु मनु के अन्य टीकाकार, यथा--कुल्लूक आदि, तथा 'व्यवहारमयूख' एवं अन्य ग्रन्थों ने लिखा है कि दत्तक समान जाति का होना चाहिये । 'संस्कारकौस्तुभ' (पृ० १५०)एवं 'धर्म सिन्धु' आगे जाकर कहते हैं कि ब्राह्मण भी अपने देश के किसी अन्य वर्ण को गोद ले सकता है । 'वायुपुराण' (१६।१३७-१३६) ने वर्णन किया है कि दुष्यन्त के पुत्र भरत ने ब्राह्मण बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज को गोद लिया, जो क्षत्रिय बन गया। आज के न्यायालयों ने
३. दत्तकश्च पुमानेव भवति न कन्या । ‘स ज्ञेयो दत्रिमः सुतः' (मनु ।१६८) इति संज्ञासंजिसम्बन्धबोधकवाक्यगतेन स इति सर्वनाम्ना मातापितृकर्तृक-प्रीतिजलगुणकापन्निमित्तकदानकर्षीभूतसजातीयपंस एव, 'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयोत तमध्यापयोत' इति तच्छब्देनाष्टवर्षब्राह्मण्यपुंस्स्वोपनयनादिसंस्कृतस्यैव परामर्शात् । व्य० म० (१०८-१०६) । और देखिये, आपस्तम्बगृह्यसूत्र (४।१०।२) एवं धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० १६२) ।।
४. दत्तकमीमांसा ने इस विषय में स्कन्दपुराण, लिंगपुराण, हरिवंश एवं आदिपर्व से भी उदाहरण दिये हैं। देखिये आदिपर्व (१११।२-३, जहाँ कुन्ती के प्रतिग्रहण का उल्लेख है) एवं रामायण (बालकाण्ड, अध्याय ६ जहाँ शान्ता का उल्लेख है)।
५. सदृशं न जातितः किं तहि कुलानुरूपंर्गुणैः । क्षत्रियादिरपि ब्राह्मणस्य दत्तको युज्यते । मेधातिथि (मनु ६।१६८) । विप्रादीनां वर्णानां समानवर्ण एव । तत्रापि देशभेदप्रयुक्तगुर्जरत्वान्ध्रत्वादिना समानजातीय एव । धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० १५८) ।
६. तस्माद् दिव्यो भरद्वाजो ब्राह्मण्यात् क्षत्रियोऽभवत् । द्विमुख्यायननामा स स्मृतो द्विपितृकस्तु वै ॥ वायु० ६६१५७) । लगता है, यहाँ 'द्विमुख्यायन' 'हृयामुष्यायण' का अपनश है ।
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