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दत्तक और उसे लेने-देने वालों की योग्यता
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आत्मा की रक्षा की भावना उतनी ही प्रबल होती है जितनी कि धनिक व्यक्ति में । विधवाओं के द्वारा जो पूत्रीकरण होता है उसमें धार्मिक भावना बहुत ही दूर खड़ी रहती है । बहुधा वे अपने पति के भाइयों या भतीजों से द्वेष की भावना के कारण दत्तक पुत्र ग्रहण करती हैं और उन्हें इस प्रकार के समझौते के साथ ग्रहण करती हैं कि वे स्वयं सम्पत्ति-सम्बन्धी लाभ उठा सकें और अपना जीवन आनन्द से काट सके !
दत्तक रूप में अपना पुत्र देनेवाला व्यक्ति--पिता को ही पुत्रीकरण में अपना पुत्र देने का मुख्य अधिकार है और वह बिना पुत्र की माता की सहमति से भी ऐसा कर सकता है। बिना पति की आज्ञा के माता अपने पुत्र को नहीं दे सकती, जब तक पिता जीवित एवं मति देने के योग्य है तब तक माता पुत्र-दान नहीं कर सकती। मनु० (११६८) एवं याज्ञ० (२।१३०) के मत से यदि पिता मर गया हो या सन्यासी हो गया हो या अपनी मति देने के लिए अयोग्य हो तो केवल माता ही पुत्र को दत्तक रूप में दे सकती है, किन्तु यदि पिता स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से ऐसा करने को मना कर दे तो वह दत्तक देने में असमर्थ मानी जाती है। यदि माता एवं पिता मर गये हों तो यहाँ तक कि पितामह या विमाता या भाई किसी को दत्तक में नहीं दे सकते।
पुत्रीकरण के योग्य व्यक्ति--यदि पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र स्वाभाविक रूप में या दत्तक रूप में न हों तो कोई भी भच्छी मति वाला एवं बालिग हिन्दू पुरुष पुत्रीकरण कर सकता है, अर्थात् गोद ले सकता है। बालकृष्ण के 'दत्तसिद्धान्त मंजरी' नामक ग्रन्थ में आया है कि यदि औरस पुत्र जन्म से ही अंधा, गुगा या बहरा हो तो पिता दत्तक ले सकता है । यदि व्यक्ति कुमार (अविवाहित ) या विधुर हो या उसकी पत्नी की सहमति न हो या वह गर्भवती हो तब भी दत्तक लेने में कोई बाधा नहीं है । वास्तव में, वसिष्ठ (१५६) ने दत्तक पुत्र लेने के उपरान्त भी पुत्र उत्पन्न करने की व्यवस्था दी है। रूद्र धर एवं वाचस्पति के मत से शूद्र लोग दत्तक नहीं प्राप्त कर सकते, क्योंकि वे मन्त्रों के साथ होम नहीं कर सकते। किन्तु रघुनन्दन, नीलकण्ठ एवं दन कमीमांसा के मत से शूद्र दत्तक ग्रहण कर सकते हैं; शौनक ने स्पष्ट रूप से ऐसी आज्ञा दी है, क्योंकि किसी ब्राह्मण द्वारा होम कराया जा सकता है। पराशर (६।६३-६४) ने भी ऐसा ही विधान दिया है। बिना पति की स्पष्ट आज्ञा के पत्नी पति के रहते गोद नहीं ले सकती (वसिष्ठ १५५)।
व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त केवल उसकी पत्नी ही गोद ले सकती है। किन्तु विधवा के अधिकारों के विषय में मतैक्य नहीं है । वसिष्ठ (१५।५) का यह कथन कि बिना पति की आज्ञा के कोई भी स्त्री न गोद ले सकती है और न गोद के लिए अपना पुत्र दे सकती है, विवादों के मूल में आता है । सभी प्रकार की व्याख्याएँ इस विषय में उपस्थित की गयी है । वसिष्ठ के इस वचन के विश्लेषण में कट्टर, धर्मपरायण एवं मीमांसा के नियमों में पारंगत टीकाकारों ने अपनी जिस बुद्धि एवं कुशलता का परिचय दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वसिष्ठ के सूत्र "अपुत्रणेति पुंस्त्वश्रवणान्न स्त्रिया अधिकार इति गम्यते' की चार व्याख्याएँ हैं--(१)दत्तकमीमांसा एवं वाचस्पति जैसे मिथिला के लेखकों के मत से विधवा गोद लेने के सर्वथा अयोग्य है, क्योंकि पुत्रीकरण के समय पति की आज्ञा(जब कि वह मर चुका है) लेना असम्भव है, और वह वैदिक मन्त्रों के साथ होम-कार्य नहीं कर सकती, न वह वसिष्ठ एवं शौनक द्वारा व्यवस्थित उन वैदिक वचनों को कह सकती है जो पुत्र-परिग्रहण के समय कहे जाते हैं; (२) बंगाल, मद्रास एवं वाराणसी के मत से पति द्वारा (उसके जीवन-काल में) दी गयी आज्ञा के अनुसार विधवा पुत्र-प्रतिग्रह कर सकती है, इसका तात्पर्य यह है कि प्रतिग्रहण के समय पति का अनुज्ञान ( आज्ञा) आवश्यक नहीं है,वह तो पुत्र-प्रतिग्रहण के बहुत पहले ही दिया जा सकता है; (३) मद्रास में विधवा बिना पति के अनुज्ञान के पुत्र-प्रतिग्रहण कर सकती है, यदि उसे श्वशुर की आज्ञा मिली हो या उसके मर जाने पर उसके पति के सभी सहभागियों कीसहमति हो और यदि उसका पति संयुक्त परिवारका सदस्य रहा हो; किन्तु यदि उसका पति अलग हो गया हो तो श्वशुर की आज्ञा तथा उसके मर जाने पर उसके पति के बहुत नजदीकी सपिण्डों की अधिक संख्या में आज्ञा आवश्यक है । (४) बम्बई एवं पश्चिम भारत में मान्य प्रामाणिक
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