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________________ ८६२ धर्मशास्त्र का इतिहास नारद (दायभाग ४६) ने इसकी परिभाषा भी दी है। केवल वसिष्ठधर्मसूत्र एक अपवाद है। इसने न केवल( १७१ २८-२६) परिभाषा दी है, प्रत्युत दत्तक-कार्य के नियमों के उद्घाटन में यह प्रारम्भिक स्मृतियों में प्रथम है । इसके कतिपय वचन एक स्थान पर इस प्रकार रखे जा सकते हैं--"शुक्र (बीज) एवं शोणित से उत्पन्न व्यक्ति अपने जन्म के लिए माता एवं पिता का ऋणी होता है। (अतः) उसके माता एवं पिता को उसे दे देने, बेचने या त्यागने का अधिकार है। किन्तु किसी को अपना एक मात्र पुत्र न तो किसी अन्य को देना चाहिये और न उसी प्रकार स्वयं स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उसे अपने पूर्वजों का कुल चलाना आवश्यक है । बिना पति की आज्ञा के किसी स्त्री को किसी अन्य का पुत्र न तो स्वीकार करना चाहिये और न अपने पुत्र को देना चाहिये । यदि कोई दत्तक पुत्र लेना चाहे तो उसे ऐसा अपने सगे बन्धु-बान्धवों को निमंत्रित कर, राजा को उसका समाचार देकर और अपने गृह के मध्य में व्याहृतियों के साथ होम करके करना चाहिये और ऐसे पुत्र को दत्तक बनाना चाहिये जो अपना सगा सम्बन्धी हो और आचार-व्यवहार एवं बोली में दूर का न हो । यदि (दत्तक के कुल के विषय में) संदेह उत्पन्न हो जाय तो दत्तक लेनेवाले को (दत्तक के सम्बन्धियों की दूरी के कारण) चाहिये कि वह उसे शूद्र समझ, क्योंकि यह (ब्राह्मणों एवं श्रुतिग्रन्थों में) घोषित है कि 'एक (पुत्र, औरस या दत्तक) के द्वारा वह (दत्तक लेनेवाला) बहुतों को बचाता है। यदि दत्तक लेने के उपरान्त औरस उत्पन्न हो जाय तो दत्तक को एक-चौथाई भाग मिलता है (वसिष्ठ १५१-६)।" मन (६।१४१) ने ऐसे पुत्र के गोद लिये जाने की ओर संकेत किया है जो गोद लेनेवाल के गोत्र का नहीं है, और (६।१४२) दत्तककर्म के फलों का भी उल्लेख किया है । 'दत्त कमीमांसा' एवं 'व्यवहारमयूख' ने अत्रि, शौनक, शाकल एवं कालिकापुराण नामक प्राचीन ग्रन्थों को उद्धृत किया है । 'मिताक्षरा' ने दत्तक के विषय में कुछ पंक्तियाँ मात्र दी हैं। सत्रहवीं शताब्दी के बाद के तथा अन्य पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने (यथा--व्यवहारमयूख, दत्तकमीमांसा, संस्कारकौस्तुभ, दत्त कचन्द्रिका ने) दत्तक के विषय में विस्तार के साथ लिखा है । आधुनिक काल में 'दत्तकमीमांसा' एवं 'दत्तकचन्द्रिका' (कुछ बंगाली लेखकों ने इसे कूट रचना माना है) को दत्तक के विषय में अधिकतम प्रामाणिक माना जाता रहा है और प्रिवी कौंसिल ने इनका आधार लिया है। दत्तक के अन्तर्गत प्रमुख विषय ये हैं---पुत्रीकरण का लक्ष्य या उद्देश्य, वह व्यक्ति जो नियमतः पुत्रीकरण कर सकता है, वह व्यक्ति जो पुत्रीकरण के लिए (पुत्र) देता है, वे व्यक्ति जिनका पुत्रीकरण हो सकता है, पुत्रीकरण-सम्बन्धी आवश्यक साधन एवं संस्कार-कार्य का तथा पुत्रीकरण का फल । पत्रीकरण का उद्देश्य---अत्रि (५२)ने घोषित किया है कि केवल पुत्रहीन व्यक्ति को ही सभी सम्भव प्रयासों से पुन-प्रतिनिधि लेना चाहिये, जिससे कि वह पिण्ड एवं जल (पिण्ड-दान एवं जलतर्पण) पा सके। 'दत्तकचन्द्रिका' ने उपयुक्त अत्रि-वचन एवं मन का उल्लेख कर पुत्रीकरण के दो उद्देश्य घोषित किये हैं; (१) पिण्डोदक क्रिया हेत. (२) नाम संकीर्तन हेतु, अर्थात् (१) पिण्डों एवं जल से धार्मिक लाभ की प्राप्ति एवं (२) गोद लेने वाले के नाम एवं कुल को अविच्छेद्य रूप से चलते जाने देना। ऐसा कहा जा सकता है कि अधिकांश में गोद लेनेवाल (पत्रीकरण करनेवाले) का उद्देश्य धार्मिक होता है, किन्तु पुत्र देनेवाले तथा उसके पुत्र का ध्येय धर्म से बहुत दूर होता है। अन्तिम दोनों का, कम-से-कम आधुनिक समय में, प्रमुख लक्ष्य होता है, बिना किसी प्रयास के सम्पत्ति की प्राप्ति करना,उनके मन में धार्मिक वत्तियाँ कदाचित ही उत्पन्न होती हैं। कोई दरिद्र व्यक्ति को अपना पत्र दत्तक रूप में नहीं देता, यद्यपि उस दरिद्र में २. तत्राह मनुः । अपुत्रेण सुतः कार्यों यादक तादृक प्रयत्नतः । पिण्डोदकक्रियाहेतो मसंकीर्तनाय च ॥ दत्त० च० (पृ०२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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