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________________ राजत्व का उद्गम से पता चलता है कि पृथु को जो शपथ दिलायी गयी वह मानवों के लोगों के समक्ष कोई प्रण नहीं किया । सम्भवतः देवों के समक्ष ली ली गयी । किन्तु जो वृत्तान्त ऊपर आया है, उससे पता चलता है कि राजा का उद्गम देवी था । ६७वाँ अध्याय उपर्युक्त विषय में संक्षिप्त वृत्तान्त देता है। लगता है, यह विवेचन किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ या लेखक से सम्बन्धित था। इसमें आया है कि राज्य के लिए सबसे बड़ी बात है राजा प्राप्त करना, क्योंकि राजा -विहीन देश में धर्म, जीवन एवं सम्पत्ति का नाश हो जाता है, इसीलिए देवों ने जन-रक्षार्थ राजा की नियुक्ति की। इस अध्याय में आया है कि लोग एकत्र हुए और उन्होंने इस आशय के नियम बनाये कि जो कोई निन्दा, मारपीट, बलात्कार तथा नियम भंग करेगा वह त्याज्य होगा। वे सभी ब्रह्मा के पास गये और उनसे ऐसे शासक की नियुक्ति के लिए प्रार्थना की जो उनकी रक्षा कर सके और उनसे आदर-सम्मान प्राप्त कर सके । ब्रह्मा ने मनु की नियुक्ति की, किन्तु उन्होंने प्रथमतः यह कहकर अस्वीकार किया कि शासन एक कठिन व्यापार है, विशेषतः मनुष्यों के बीच जो कि सदा कपटी होते हैं, मैं मनुष्यों के पापमय कर्मों से बड़ा भयभीत हूँ । मनुष्यों ने मनु से न डरने को कहा और कहा कि पाप केवल पापकर्मियों को हो प्रभावित करेगा ( मनु को नहीं ) । उन्होंने अन्न का दसवाँ, पशु का पाँचवाँ धर्म का चौथा भाग आदि देने का वचन दिया, तब मनु मान गये । उन्होंने विश्व का परिभ्रमण किया, दुष्कर्मियों को भयाक्रान्त किया और उन्हें धर्म के अनुसार चलने को बाध्य किया । कौटिल्य ने मनु एवं मानव से सम्बन्धित यह बात अपने अर्थशास्त्र में भी परिकल्पित की है (१1१३) । मनु ने अपनी ओर से कोई प्रण नहीं किया, यद्यपि मनुष्यों ने कर देने तथा अपने पापों को स्वयं भोगने का प्रतिवचन दिया था। इसमें सन्देह नहीं है कि दोनों अध्यायों के वृत्तान्तों में कुछ अन्तर अवश्य है । ६७ वें अध्याय में आरम्भिक कृतयुग, विशाल ग्रन्थ, शपथ आदि का उल्लेख नहीं है। इतना ही नहीं, एक अध्याय में प्रथम राजा वैन्य है तो दूसरे में मनु । दोनों धारणाएँ काल्पनिक एवं देवताख्यान -सम्बन्धी हैं, किन्तु दोनों में मुख्य तथ्य एक ही है। दोनों में राजा की प्राप्ति देवों से ही हुई है, विशेषतः उस समय जब कि जनों में राजा नहीं था और चारों ओर अनैतिकता का साम्राज्य था । ६७ वें अध्याय में देवी अधिकार एवं राजा और लोगों के बीच आरम्भिक समझौते का सम्मिश्रण पाया जाता है । अस्तु; राजत्व के उद्गम के विषय में दोनों अध्याय एक ही बात की ओर संकेत करते हैं, अर्थात् राजत्व का उद्गम दैवी था । शान्तिपर्व ( ६७१४ ) में आया है -- " सम्पत्ति एवं समृद्धि के अभिकांक्षी को इन्द्र के सम्मान के समान ही राजा का सम्मान करना चाहिए ।" ५६ वें अध्याय ( श्लोक १३६ ) में आया है कि दैवी गुणों के कारण ही लोग राजा के नियन्त्रण में रहते हैं । शान्तिपर्व के दोनों अध्यायों में राजा एवं मनुष्यों के बीच समझौते पर कोई स्पष्ट या सम्यक् सिद्धान्त नहीं है । ५६ ३ समक्ष न होकर देवों के समक्ष हुई और उसने गयी शपथ मनुष्यों के लिए भी ज्यों की त्यों मान नारदस्मृति (प्रकीर्णक, २०, २२, २६, ५२ ) ने स्पष्ट रूप से दैवी अधिकार का प्रतिपादन किया है -- "पृथिवी पर स्वयं इन्द्र राजा के रूप में विचरण करता है। उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करके मनुष्य कहीं नहीं रह सकते । राजा सर्वशक्तिमान् है, वही रक्षक है, वह सब पर कृपालु है, अतः यह निश्चित नियम है कि राजा जो कुछ करता है वह ठीक या मम्यक् ही रहता है । जिस प्रकार दुर्बल पति को भी उसकी पत्नी की ओर से सम्मान मिलता है, उसी प्रकार गुणहीन शासक को भी प्रजा द्वारा सम्मान मिलना चाहिए ।" अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'दी डिवाइन राइटर आव किंग्स' (सन् १६३४, १० ५-६ ) में श्री जे० एन० फिग्गिस देवी अधिकार के सिद्धान्त के लिए चार प्रमेय स्वीकृत किये हैं-- (१) राजत्व दैवी है अर्थात् इसकी संस्थापना में देवी हाथ है, (२) राजत्व पर आनुवंशिक अधिकार है, (३) राजा पूर्णरूपेण स्वतन्त्र है, वह केवल परमात्मा के प्रति उत्तरदायी है, (४) बिना किसी आग्रह के तथा पूर्ण आज्ञाकारिता के साथ राजाज्ञा माननी होगी, ऐसा ईश्वर द्वारा निर्धारित है, अर्थात् किसी भी दशा में राजा का विरोध करना पाप है। यूरोप में यह सिद्धान्त १६वीं ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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