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धर्मशास्त्र का इतिहास
किन्तु कौटिल्य ने यह नहीं लिखा है कि मनु ने जनता के समक्ष कोई प्रण किया कि नहीं। शान्तिपर्व (अध्याय ५६) में आया है कि किस प्रकार प्रथम राजा वैन्य (पथ) ने देवों एवं मुनियों के समक्ष शपथ ली कि वह विश्व की रक्षा करेगा, राजनीति-शास्त्र द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करेगा और अपने मन की कभी न करेगा।१३
राजा के देवत्व अधिकार वाले सिद्धान्त की ध्वनि ऋग्वेद में भी है । ऋग्वेद (४।४२) में पुरुकुत्स के पुत्र वसदस्यु का वर्णन है । इस मन्त्र के कुछ विचार विलक्षण हैं। राजा न मद्दस्य कहता है--"देव लोग वरुण की शक्ति पर निर्भर हैं, किन्तु मैं लोगों का राजा हूँ। मैं इन्द्र एवं वरुण हूँ, मैं विशाल एवं गम्भीर स्वर्ग एवं पृथिवी हूँ; मैं अदिति का पुत्र हूँ।" यहाँ पर राजा अपने को वैदिक देवों में सर्वश्रेष्ठ देवों के समान कहता है । अथर्ववेद (६।८७।१-२) में आया है-“हे राजा, तुम्हें सभी लोग चाहें, तुम्हारे हाथों से राज्य न छीना जा सके, तुम इन्द्र के समान इस विश्व में सुस्थिर रहो और तुम राज्य धारण किये रहो।" शतपथब्राह्मण (५।१५।१४) में, वाजपेय यज्ञ में बाप चलाते समय ऐमा कहा गया है--"राजन्य प्रजापति का है, वह अकेला है, किन्तु बहुतों पर राज्य करता है।" यहाँ पर राजा की स्थिति का वर्णन प्रजापति के प्रतिनिधि रूप में है। विश्वरूप (याज्ञवल्क्य १।३५०) ने एक लम्बे वैदिक अंश (आगम) को उद्धृत कर ऐमा लिखा है--'देवों ने प्रजापति से कहा; हम लोग सोम, सूर्य, इन्द्र, विष्णु, वैश्रवण (कुबेर) एवं यम से क्रमानुसार महत्ता, दीप्ति, शक्ति, विजय, औदार्य एवं नियन्त्रण लेकर मानव रूप में राजा के लिए व्यवस्था करेंगे।" अब इस प्रकार राजा बन गया तो उसने देवों से अपने मित्र के रूप में धर्म की याचना की जिससे कि वह लोगों की रक्षा कर सके, और तब देवों ने धर्म (अर्थात् दण्ड) को मित्र के रूप में उसे दिया।
राजत्व के उद्गम के सिद्धान्तों की जो चर्चा महाभारत में हुई है, हम उसकी समीक्षा करेंगे । शान्तिपर्व ने इस विषय में दो स्थलों पर चर्चा की है (अध्याय ५६ एवं ६७) । ५६वें अध्याय में याधष्ठिर ने महान योद्धा एवं राजनीतिज्ञ भीष्म से पूछा कि 'राजा' की उपाधि का उद्गम क्या है और किस प्रकार अन्य मनुष्यों की भाँति ही दैहिक एवं मानस शक्तियों वाला एक मनुष्य सब पर शासन करता है। ये दो प्रश्न नहीं हैं प्रत्यत एक ही प्रश्न के दो पहल हैं। भीष्म ने उत्तर के रूप में कहा कि आरम्भ में कृतयुग (पूर्णता की स्थिति) था; न राजा था, न राज्य ; और न दण्ड था और न दण्ड देने वाला । क्रमशः लोगों में मोह उत्पन्न हुआ और तब लोभ, कामुक प्रेरणाओं एवं उद्दाम प्रवृत्तियों का उदय हुआ और वेद एवं धर्म का विनाश हो गया। देवों को आहुतियाँ मिलनी बन्द हो गयीं और वे ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने एक महान ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें विश्व के कल्याण के हेतु जीवन के अस्तित्व के चार लक्ष्य प्रतिपादित किये गये और वह ज्ञान का उत्तमांश घोषित हुआ। इसके उपरान्त देव-गण विष्णु के पास गये और उनसे मनुष्यों में सर्वोत्तम व्यक्ति को राजा बनाने की प्रार्थना की। विष्ण ने अपने मन से विरजा नामक पुत्र उत्पन्न किया जिसने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। विरजा की पांचवीं पीढ़ी में वेन उत्पन्न हुआ जिसने धर्म का नाश कर दिया और ब्राह्मणों ने उसे मार डाला। ब्राह्मणों ने फिर उसकी बायीं भुजा को मथकर सुन्दर, सुसज्जित तथा वेद-वेदांगों एवं दण्डनीति में पारंगत पथ को उत्पन्न किया। देवों एवं ऋषियों ने उसे सुनिश्चित धर्म के पालन के लिए उद्वेलित किया, अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने तथा शपथ लेने को कहा। उसे ही देवों एवं ऋषियों ने जन-रक्षण के लिए राज-पद दिया। स्वयं विष्णु ने उससे कहा-“हे राजा, तुम्हारी आज्ञा के विरोध में कोई नहीं जायगा।" ऐसा कहकर विष्णु पृथु में समा गये (श्लोक १२८) और इसीलिए लोग राजाओं को देवतुल्य मानकर उनके समक्ष माथा नवाते हैं। इस वृत्तान्त
१३. प्रतिज्ञा चाभिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा । पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्मत्येवाह चासकृत् ॥ यश्चात्र भो नीत्यक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः । तमशः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥ शान्ति० ५६१०६-१०८ ।
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