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राजत्व का उद्गम
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है जो पहले से ही राजा है । अथर्ववेद (३।४।२) में राजा के निर्वाचन की ओर संकेत मिलता है-"लोग(विशः) राज्य करने के लिए तुम्हें चुनते हैं, ये दिशाएं, ये पंचदेवियाँ तुम्हें चुनती हैं।" भद्र लोग, राजा-निर्माता या राजा के कर्ता, सूत, ग्राम-मुखिया, दक्ष रथकार, कुशल धातु-निर्माता राजा को चुनते थे, ऐसी ध्वनि अथर्व (३।५।६ एवं ७) में मिलती है। १२ अन्य वैदिक ग्रन्थों एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण (१।७।३) में राजा के निर्माता (राज-कर्ता) को 'रनिन्' कहा गया है, "रत्नी लोग राष्ट्र (राज्य) राजा को देते हैं" (रनिनामेतानि हवींषि भवन्ति । एते वै राष्ट्रस्य प्रदातार:--तै० ब्रा० १७।३)। इससे स्पष्ट होता है कि ऐसी धारणा थी कि राजा भद्र लोगों, उच्च कर्मचारियों तथा सामान्य लोगों से राज्य पाता था। अयोध्याकाण्ड (१ एवं २) में राजा दशरथ ने राम को युवराज पद देने के लिए सामन्तों, नागरिकों, ग्रामिकों आदि की सभा बुलायी थी और उन सभी लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक अपना अभिमत राम के पक्ष में दिया । इससे स्पष्ट है कि कालान्तर में राजत्व-पद आनुवंशिक हो गया था, किन्तु सामान्य लोगों का अभिमत लेने की परम्परा अभी जाग्रत थी। किन्तु उपर्यक्त कथनों से यह नहीं प्रकट होता कि राजा लोगों द्वारा निर्वाचित सदस्यों की संसद द्वारा निर्वाचित होता था। केवल इतना ही व्यक्त होता है कि लोग यों ही स्वेच्छया एकत्र हो सभा में अपनी सम्मति दे देते थे । रामायण (२०६७) में
आया है कि दशरथ के दिवंगत हो जाने पर मार्कण्डेय एवं वामदेव जैसे मुनियों ने अमात्यों के साथ कुलपुरोहित वसिष्ठ के . समक्ष यह उद्घोषित किया कि राम एवं लक्ष्मण वन को चले गये, भरत एवं शत्रुघ्न केकय देश में हैं, अतः इक्ष्वाकुकुल
के किसी वंशज को राजा चुनना चाहिए। इन मुनियों एवं अमात्यों को 'राज-कर्तारः' कहा गया है (७६१) । आदिपर्व (४४।६) में आया है कि परीक्षित की मृत्यु के उपरान्त राजधानी के सभी नागरिकों ने एक स्वर से जनमेजय नामक बालक को राजा चुना और जनमेजय ने अपने मन्त्रियों एवं पुरोहित की सहायता से राज्य किया। राजा के निर्वाचन के विषय में ऐतिहासिक उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। क्षत्रप राजा रुद्रदामा सुराष्ट्र के लोगों द्वारा निर्वाचित हआ था। कौटिल्य (११।१) के शब्दों में सुराष्ट्र में एक समय गणतन्त्र था। रुद्रदामा के अभिलेख में आया है कि उसने राज्य-प्राप्ति पर शपथ भी ली थी (देखिए एपिग्रेफिया इण्डिका, भाग ८, १०३६) । पाल-वंश के संस्थापक गोपाल का भी निर्वाचन हआ था। लगता है, मुख्य मंत्रियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा का नाम घोषित होता था और वे ही लोग "राज-कारः" कहे जाते थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री युवान च्वाँग (वेन सांग) ने लिखा है कि राज्यवर्धन की मृत्यु के उपरान्त मुख्य मन्त्री भण्डी ने मन्त्रियों की सभा की और मन्त्रियों एवं न्यायाधिकारियों ने हर्ष को राजा बनाया। इसी प्रकार जब परमेश्वर वर्मा द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त पल्लव-राज्य में अराजकता फैल गयी तब प्रजा ने राजा चुना। राजतरंगिणी (५।४६१-४६३) में आया है कि यशस्कर पहले एक दरिद्र व्यक्ति था, ब्राह्मणों ने उसे राजा बनाया।
कहीं-कहीं रूसो द्वारा उद्घोषित 'सामाजिक समझौते' वाले सिद्धान्त की प्रतिध्वनि भी मिल जाती है। वर्तमान काल में सामाजिक समझौते वाला सिद्धान्त दो स्वरूपों में उपस्थित किया जाता है। पहला वह है जिसके द्वारा शासन एवं जनता में स्पष्ट अभिमत की कल्पना की गयी है और दूसरा वह है जिसके द्वारा यह व्यक्त होता है कि एक ऐसे राजनीतिक समाज का निर्माण हुआ जो व्यक्तियों का पारस्परिक समझौता था और जिसमें राजा का कोई हाथ नहीं था। सामाजिक समझौते वाला सिद्धान्त यह व्यक्त करता है कि शासन या सरकार जनता की स्वीकृति पर निर्भर रहती है। कौटिल्य (१।१३) ने उस किंवदन्ती की ओर संकेत किया है जिससे प्रकट होता है कि वैवस्वत मनु लोगों द्वारा राजा बनाया गया और रक्षा करने के कारण लोगों ने उसको आय का छठा भाग कर देना स्वीकार किया।
१२. त्वां विशो वृणता राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवीः । अथर्व० ३।४।२, ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये । उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ॥ अथर्व० ३१५॥७॥
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