SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास राजनीति-शास्त्र-सम्बन्धी सभी ग्रन्थों में राजाओं के अधिकारों एव विशेषाधिकारों की अपेक्षा उनके कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों पर विशेष बल दिया गया है। कुछ ग्रन्थों में राजा प्रजा का नीकर कहा गया है, जिसे रक्षा करन के क वेतन रूप में कर दिया जाता है (देखिए, बौधायनधर्मसन ११०११: शक्रनीति ११८८: नारद-प्रकीर्णक ४८; शान्ति० ७१।१०।११ एक ओर तो ऐसा कहा गया है कि राजा को देवत्व प्राप्त है और दूसरी ओर बुरा कर्म करने पर उसे सिंहासन-च्युत करने या मार डालने की व्यवस्था दी गयी है। ऐसी विपरीत धारणाओं के मूल में दो दृष्टिकोण हैं । ग्रन्थकारों ने वर्णों एवं आश्रमों की स्थिति को अक्षुण्ण रखने के लिए तथा आने वाले कालों में सामाजिक कुव्यवस्थाएँ न उत्पन्न हों, इसलिए राजा को देवत्व प्रदान किया, जिससे कि लोग उसकी आज्ञाओं के अनुसार चलते रहें । यह बात सामान्य लोगों के लिए कही गयी है। किन्तु बुरे राजाओं एवं मन्त्रियों के अत्याचार का भी भय था ही। अतः राजा तथा उसके मन्त्रियों को नाश एवं मृत्यु की धमकी भी दे दी गयी थी। कौटिलीय (५।३) में ये शब्द आये हैं--"समानविद्येभ्यस्त्रिगुणवेतनो राजा राजसूयादिषु क्रतुषु", अर्थात् राजसूय तथा अन्य पवित्र यज्ञों में राजा को तत्समान विद्वानों की अपेक्षा तिगुना वेतन मिलता है। डा० जायसवाल (हिन्दू पॉलिटी, भाग २, पृ० १३६) ने इस कथन के आधार पर राजा को भी मन्त्रियों एवं प्रधान सेनापति के समान वेतनभोगी की संज्ञा दी है। किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है, क्योंकि कौटिल्य ने यहाँ पर राजा के विषय में नहीं, प्रत्युत उसके प्रतिनिधि या सहायक की ओर संकेत किया है, जब कि राजा अश्वमेध-जैसे लम्बी अवधि वाले यज्ञों में संलग्न रहा करता था। आपस्तम्बश्रौतसून (२२।३।१-२), बौधायनश्रौतसूत्र (१५॥४) एवं सत्याषाढ श्रौतसूत्र (१४।१।२४-२५) में स्पष्ट आया है कि अश्वमेध यज्ञ में, जब कि वह दो वर्षों तक चलता रहता था, अध्वर्यु नामक पुरोहित उसके स्थान पर कार्य करता था। अतः ऊपर जो बात राजा के वेतन के विषय में कही गयी है वह अध्वर्य के लिए सिद्ध होती है, जो कि यज्ञादि में राजा का प्रतिनिधि होता था । कौटिल्य (१०१३) ने लिखा है कि सदाचारी राजा को किसी युद्ध के आरम्भ में अपने सैनिकों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए--"मैं भी तुम लोगों की भाँति वेतनभोगी हूँ, इस राज्य का उपभोग मुझे तुम लोगों के साथ ही करना है, तुम्हें मेरे द्वारा बताये गये शत्रु को हराना है ।" यहाँ पर प्रकारान्तर से इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि राजा वेतनभोगी है या राज्य का नौकर है। निरुक्त (२॥३) में 'राजन्' शब्द 'राज्' धातु से निष्पन्न बताया गया है जिसका अर्थ है 'चमकना', किन्तु महाभारत (शान्ति०५६।१२५) ने राजा को 'रंज्' धातु से निष्पन्न बताया है जिसका अर्थ है 'प्रसन्न करना', अर्थात् वही राजा है जो प्रजा को प्रसन्न एवं सुखी या संतुष्ट रखता है । कालिदास (रघुवंश ४।१२) जैसे कवियों ने महाभारत का अर्थ स्वीकृत किया है और क्षत्रिय शब्द को 'क्षत' तथा '' धातु से निष्पन्न बताया है, जिसका अर्थ है 'वह जो नाश या व्रण से रक्षा करता है' (शान्ति०५६।१२६, रघुवंश २।५३) । हमारे प्रामाणिक ग्रन्थों में राजत्व के उद्गम के विषय में चार सिद्धान्त घोषित किये गये हैं। ऋग्वेद (१०। १७३ = अथर्ववेद ६१८७ एवं ८८।१-२) में चुनाव की ओर संकेत मिलता है, ऐसा डा० जायसवाल का कहना है । किन्तु सम्भवतः यह बात ठीक नहीं है। "सभी लोग तुम्हें (राजा की भाँति) चाहें" (ऋग्वेद १०११७३।१) उसके लिए आया ११. अन्यप्रकारादुचिताद् भूमेः षड्भागसंजितात् । बलिः स तस्य विहितः प्रजापालनवेतनम् ॥ नारद (प्रकीर्णक, ४८); बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम् । शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम् ॥ शान्ति० ७१।१०; स्वभागभृत्या दास्यत्वे प्रजानां च नृपः कृतः । ब्रह्मणा स्वामिरूपस्तु पालनार्थ हि सर्वदा ।। शुक्रनीति० (१।१८८)। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy