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राजा का नियन्त्रण
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कर राजा का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि राजा का आसन सबसे ऊँचा होता है । ब्राह्मणों को भी चाहिए कि वे राजा का सम्मान करें ।” ऐतरेय ब्राह्मण ( ३७।५ ) के काल से ही ब्राह्मणों एवं राजा की एकरूपता की तथा राजा द्वारा ब्राह्मण की सम्मति का आदर करने की परम्परा चली आती रही है ( ऐतरेय ब्राह्मण ४०।१, गौतम ० ८।१, ११।२७) । शुक्रनीतिसार (१1७० ) में आया है कि वह राजा जो प्रजा को कष्ट देता है या धर्म के नाश का कारण बनता है, अवश्य ही राक्षसों का अंश होता है । मनु (७।१११-११२ ) ने कहा है कि जो राजा प्रजा को पीड़ा देता है वह अपना जीवन, कुटुम्ब एवं राज्य खो देता है । प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की गाथाएँ पायी जाती हैं जो अपने अत्याचार के फलस्वरूप मार डाले गये थे । राजा वेन को ब्राह्मणों ने मार डाला क्योंकि वह देवद्रोही था, अपने लिए यज्ञ कराना चाहता था और अधर्मपालक था ( शान्ति० ५६ - ६३ - ६५, भागवतपुराण ४११४ ) । यही बात ( अर्थात् प्रजापीडक, अत्याचारी एवं भ्रष्ट राजाओं के मार डालने वाली बात ) अनुशासनपर्व में भी पायी जाती है। १° मनु (७१२७-२८ ) का कहना है कि यदि दण्ड के सिद्धान्त भली भाँति कार्यान्वित हों तो तीनों पुरुषार्थों की उन्नति होती है, किन्तु यदि व्यभिचारी, दुष्ट एवं अन्यायी राजा दण्ड धारण करे तो वह दण्ड उसी पर घूम जाता है और उसके सम्बन्धियों के साथ उसका नाश कर देता है । कामन्दक (२०३८) ने लिखा है कि मूर्खतापूर्वक दण्ड धारण करने से मुनि लोगों का भी नाश हो जाता है । शान्तिपर्व (६२।१६ ) में घोषित हुआ है कि झूठे एवं दुष्ट मन्त्रियों वाले तथा अधार्मिक राजा को मार डालना चाहिए। तैत्तिरीय संहिता (२1३1१ ), शतपथब्राह्मण (१२|६| ३|१ एवं ३ ) ने भी ऐसा ही संकेत किया है और लिखा है कि दुष्ट राजा निकाल बाहर किये जाते रहे हैं, यथा-- दुष्टरीतु पौंसायन, जिसके कुल का राज्य दस पीढ़ियों से चला आ रहा था, राज्य से निकाल दिया गया। राज्य से हीन हो जाने के बाद ही सौतामणि इष्टि राज्य की पुनः प्राप्ति के लिए की जाती रही है । शान्ति० ( १२।६ एवं ६ ), मनु (७।२७ एवं ३४) तथा याज्ञ० ( १।३५६) ने राजगद्दी छीन लेने की बात कही है । शुक्रनीति० (२।२७४ - २७५ ) ने भी दुष्ट राजाओं को गद्दी से उतार देने और गुणवान् व्यक्ति के राज्याभिषेक की चर्चा की है। नारद (प्रकीर्णक, २५) ने लिखा है कि पूर्व जन्मों के सत्कर्मों के कारण ही राजपद मिलता है । यह कर्मवाद का सिद्धान्त है और इसका प्रतिपादन शुक्रनीति० ( १।२० ) ने भी किया है ( और देखिए मनु ७।१११-११२, शान्ति० ७८ । ३६) । यदि ब्राह्मण लोग अत्याचारी राजा को हटाकर मार डालें तो इस कर्म से पाप नहीं लगता ( शुक्रनीतिसार ४।७।३३२-३३३ ) | यशस्तिलक ( ३, पृ० ४३१ ) ने प्रजा द्वारा मारे गये राजाओं के उदाहरण दिये हैं, यया -- कलिंग का राजा, जिसने एक नाई को अपना प्रधान सेनापति
बनाया था ।
८. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जम् । तमुपर्यासीनमधस्तादुपासीरन्नन्ये ब्राह्मणेभ्यः । तेप्येनं मन्येरन् । गौ० ११।१।७-८ । गौ० (११।७ ) को मनु ( ७।६) की व्याख्या में मेधातिथि ने उद्धृत किया है और यही कार्य राजनीतिप्रकाश (१० १७ ) ने भी किया है ।
६. यो हि धर्मपरो राजा देवांशोन्यश्च रक्षसाम् । अंशभूतो धर्मलोपी प्रजापीडाकरा भवेत् ॥ शुक्रनीति० १७० ; नीचहीनो दीर्घदर्शी वृद्धसेवी सुनीतियुक् । गुणिजुष्टस्तु यो राजा स ज्ञयो देवतांशकः ॥ विपरीतस्तु रक्षोशः सवै नरकभाजनम् । नृपांशसदृशा नित्यं तत्सहायगणाः किल । शुक्रनीति० १२८६-८७ ।
१०. अरक्षितारं हन्तारं विलोप्तारमनायकम् । तं वै राजकल हन्युः प्रजाः सन्नह्य निर्घृणम् ॥ अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिपः । स संहत्था निहन्तव्यः श्वेव सोन्माद आतुरः ॥ अनुशासन० (६१1३२-३३ ) असत्पापिष्ठसचिवो बध्यो लोकस्य धर्महा । शान्ति० ६२ । १९ ।
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