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धर्मशास्त्र का इतिहास पुराण (२२६।१) आदि। मनु (६।३०३-३११) ने उपर्युक्त देवों के साथ पृथिवी को जोड़कर उनकी विशिष्टताओं का वर्णन करके राजा के राज-गौरव का उल्लेख किया है। यही बात मत्स्य० (२२६।६-१२) ने भी कही है। अग्निपुराण (२२६।१७-२०) में आया है कि राजा सूर्य, चन्द्र, वायु, यम, वरुण, अग्नि, कुबेर, पृथिवी एवं विष्णु के कार्य करता है, अतः उसमें इनके अंश पाये जाते हैं (और देखिए शुक्रनीतिसार १७३-७६) । इन बातों से ऐसा नहीं समझना चाहिए कि राजा को दैवी अधिकार प्राप्त हैं अथवा उसकी उत्पत्ति देवी है, प्रत्युत ऐसा समझना चाहिए कि राजा में इन देवों के कार्य पाये जाते हैं । नारदस्मृति (प्रकीर्णक-अध्याय, श्लोक २०-३१) में बहुत-से मनोरम वचन मिलते हैं। इसके अनुसार राजा में अग्नि, इन्द्र, सोम, यम एवं कुबेर के कार्य पाये जाते हैं । यही बात मार्कण्डेयपुराण (२७।२१-२६) में भी कही गयी है (और देखिए शान्ति० ६७।४) । शान्तिपर्व (६६) में आया है कि अन्य देवता अलक्ष्य हैं किन्तु राजा को हम देख सकते हैं । वायुपुराण (५७।७२) का कहना है कि अतीत एवं भविष्य के मन्वन्तरों में चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए एवं होंगे और उनमें विष्णु का अंश होगा। मत्स्यपुराण (२२६।१-१२) एवं भागवतपुराण (४।१४।२६-२७) में भी राजा के देवांशों की चर्चा की गयी है। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर कालान्तर के क्षत्रिय राजकुलों ने अपने को सूर्य तथा चन्द्र के वंशों से सम्बन्धित कहा है। बाद के क्षत्रियों ने अपने को इसी प्रकार अग्निकुल से उत्पन्न माना है। इसी कारण संस्कृत नाटकों में राजा को 'देव' कहकर सम्बोधित किया गया है । अशोक ने अपने को 'देवानां प्रिय' कहा है और कनिष्क तथा हुविष्क कुषाण राजाओं ने अपने को 'देवपुत्र' घोषित किया है। कौटिल्य (१।१३) ने गुप्तचरों द्वारा पौरों एवं जानपदों में राजा को इन्द्र एवं यम के समान दण्ड एवं कृपा देने वाला घोषित कराने को कहा है। और देखिए रामायण (३.१।१८-१६ एवं ७७६।३७-४५), मार्कण्डेयपुराण (२४/२३ -२८), विष्णुधर्मोत्तर (२०२६) आदि । प्रत्येक राजा विष्णु है। पंचतन्त्र (१११२०, १० १६) में आया है-- "मनु ने ऐसा घोषित किया है कि राजा देवों के अंश से बना है।"७ राजकीय व्यापारों की प्रशस्ति के विषय में जानकारी के लिए विशेष रूप से देखिए मनु (७।६-१७), शान्ति० (६३।२४-३० एवं ६८), कामन्दक (१।६।११) एव राजनीतिप्रकाश (पृ० १७-३१) ।
उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि राजा को देवी अधिकार प्राप्त थे, या प्रत्येक राजा को, चाहे वह बुरा ही क्यों न हो, देवत्व प्राप्त था और वह मनमाना कर सकता था। राजनीतिप्रकाश (प. ८३) ने राजा के हट जाने पर राजकुमार के अभिषेक के समय के लिए कहा है कि "स्वयं प्रजा विष्णु है।" दूसरी बात यह है कि ब्राह्मणों के विषय में राजा के अधिकार सीमित थे । गौतमधर्म सूत्र (११।१७ एवं ८) में आया है"ब्राह्मणों के अतिरिक्त सब पर राजा शासन करता है, ब्राह्मणों को छोड़कर सभी अन्य लोगों को नीचे आसन पर बैठ
६. राजेति सञ्चरत्येष भूमौ साक्षात्सहस्रदृक् । प्रजानां विगुणोऽप्येवं पूज्य एव प्रजापतिः॥पञ्च रूपाणि राजानो धारयन्त्यमितौजसः । अग्नेरिन्द्रस्य सोमस्य यमस्य धनदस्य च ॥ अशुचिर्वचनाद्यस्य शुचिर्भवति मानवः । शुचिश्चैवाचिः सम्यक कथं राजा न देवतम् ॥ नारदस्मृति, प्रकीर्णक २०, २२, २६, ५२; इन्द्रमेव प्रकृणुते यद राजानमिति श्रुतिः। यथवेन्द्रस्तथा राजा संपूज्यो भूतिमिच्छता ॥ शान्ति०६७।४; कात्यायन का कहना है-सुराध्यक्षश्च्युतः स्वर्गान्न परूपेण तिष्ठति । कर्तव्यं तेन तन्नित्यं येन तत्त्वं समाप्नुयात् ॥ (राजधर्मकाण्ड द्वारा उद्धत, ३, पृ० १६) । यहाँ तत्त्व का अर्थ है सुरेशत्व ।।
७. सर्वदेवमयो राजा मनुना संप्रकीर्तितः । तस्मात्तमेव सेनेत न व्यलोकेन कहिचित् ॥ पञ्चतन्त्र (१) । कुछ संस्करणों में "तस्मात्तं देववत्पश्येत्" आया है।
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