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स्वामी या राजा
कामन्दक (२०४०), मत्स्यपुराण (२२५।६), मानसोल्लास (२।१६, श्लोक १२६५) म भी अपने ढंग से कही गयी है। बहुत-से ग्रन्थों में दण्ड की प्रशस्तियां गायी गयी हैं। राजा को दण्डधर की उपाधि दी गयी है (शान्ति० ६७।१६, कामन्दक १।१ एवं गौतम ११।२८) । मत्स्यपुराण (२२५।१७), अग्निपुराण (२२६।१६) तथा शान्तिपर्व (१५४८) में आया है कि दण्ड नाम इसलिए पड़ा है कि यह अनियन्त्रित लोगों को दबाता है और अभद्र तथा अनीतिमान् को दण्डित करता है। ४ दण्ड को मनु (७।२५ = विष्णुधर्मसूत्र ३१६५ = मत्स्य०२२५।८), याज्ञ० (१।३५४),शान्ति० (१२१।१५) ने देवत्व की स्थिति प्रदान की है।५ दण्ड सब पर राज्य करता है, सबकी रक्षा करता है। यह न्याय के रक्षकों के सो जाने पर भी जगा रहता है; बुद्धिमान् लोग इसे धर्म कहते हैं (मनु ७/१८=शान्ति० १५।२ = मत्स्य ० २२५।१४-१५) । स्पष्ट है। राज्य की इच्छा एवं दण्ड-शक्ति व्यक्ति एवं राष्ट्र को धर्म की सीमाओं के भीतर रखती हैं, आज्ञा के उल्लंघन पर दण्ड देती हैं तथा सबका कल्याण करती हैं। देवगण, दानवगण, गन्धर्वगण, राक्षसगण तथा नागगण भी मानवों के आनन्द के योग्य हो जाते हैं, क्योंकि वे दण्ड से दबा दिये जाते हैं। (मनु ७।१३) । भगवद्गीता (१०३८) में आया है-"मैं उन लोगों के हाथों का दण्ड हूँ जो दूसरे को नियन्त्रित करते हैं, मैं विजेताओं की नीति (राजनीति) हूँ।" दण्ड के प्रभावों एव प्रशस्तियों के विषय में विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए मनु (७।१४-३१). मत्स्य० (२२५॥४-१७), कामन्दक (२०३८-४४)। किन्तु दण्ड का प्रयोग सीमा के भीतर ही होना चाहिए। न तो इसे अति कठिन होना चाहिए और न अति कोमल, प्रत्युत इसे अपराध के अनुसार होना चाहिए (कौटिल्य ११४, कामन्दक २१३७, मनु ७।१६, शान्ति १५॥१,५६१२१, १०३१३४) । शान्तिपर्व (५७१४१) में आया है कि सर्वप्रथम राजा की प्राप्ति करनी चाहिए, तब पत्नी और इसके उपरान्त धन का संचय करना चाहिए, क्योंकि राजा के अभाव में न तो पत्नी रह सकेगी और न धन प्राप्त हो सकेगा। स्पष्ट है कि कुटम्ब, धन की संस्थापनाएँ एवं दुर्बल-रक्षा राजा के अस्तित्व के साथ सन्निहित हैं। कात्यायन (राजनीतिप्रकाश, पृ ३०) का कहना है कि राजा असहायों का रक्षक, गृहहीनों का आश्रय, पुत्रहीनों का पुन एवं पिताहीनों का पिता है।।
राजकीय व्यापार की महत्ता को द्योतित करने के लिए कुछ ग्रन्थों ने लिखा है कि राजा में देवों के अंश होते हैं। उदाहरणार्थ, मनु का कहना है-"विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की, अतः वह (राजा) राजमहिमा के कारण सभी जीवों में आगे बढ़ जाता है (मन ७४४-५, तुलना कीजिए मनु ६।६६), बालक राजा का भी, यह सोचकर कि वह भी मानव ही है, अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह नररूप में देवता ही है ( मनु ७।८, शान्ति० ६८।४० ) । यही बात दूसरे ढंग से गौतम (११।३२) एवं आपस्तम्ब० (१।११।३१।५) ने भी कही है। और भी देखिए मनु (७१३-४), शुक्रनीतिसार (१७१-७२), मत्स्य
परस्परम् । अयोध्या० ६७।३१; दण्डश्चेश भवेल्लोके विनश्येयुरिमाः प्रजाः। जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन्दुर्बलं बलवत्तराः॥ शान्ति० १५॥३०; राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः । जले...बलवत्तराः॥ शान्ति०६७-१६, दण्डाभावे परिध्वंसी मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते । कामन्दक २।४० ।
४. यस्माददान्तान्दमयत्य शिष्टान्दण्डयत्यपि। दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधाः॥ शान्ति०१५।८, अग्नि० २२६।१६, मत्स्य० २२५१७।
५. यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा । प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति ॥ मनु (७।२५ -- मत्स्य० २२५८= विष्णु० ३१६५), शान्ति० (१२१।१५-१६) ने यह लिखा है--नीलोत्पलदलश्यामश्चतुबंष्ट्रश्चतुर्भुजः ।...एतवरूपं बिभर्युन दण्डो नित्यं दुरासदः ॥
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