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________________ ५८६ धर्मशास्त्र का इतिहास आने पर अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। यदि राजा सम्पत्तिमान् अथवा समृद्धिशाली है तो वह अपनी प्रकृतियों को समृद्धि प्रदान करता है । प्रकृतियों को वही गौरव प्राप्त है जो राजा को है, अतः राजा सुस्थिर एवं अक्षय शक्ति का केन्द्र है। शुक्रनीतिसार (२।४) ने लिखा है कि यदि राजा मनमाना कार्य करता है तो इससे विपत्तियाँ घहराती हैं, मन्त्रियों की हानि होती है और अन्त में राज्य का नाश होता है। शुक्रनीतिसार (१।६१-६२) ने राज्य के सप्तांगों की तुलना शरीर के अंगों से की है, यथा--राजा सिर है, मन्त्री लोग आँखें हैं, मित्र कान हैं, कोश मुख है, बल (सेना) मन है, दुर्ग (राजधानी) एवं राष्ट्र हाथ एवं पैर हैं । कामन्दक (४११-२) ने लिखा है कि सातों अंग एक-दूसरे के पूरक हैं, यदि एक भी अंग दोषपूर्ण हुआ तो राज्य ठीक से चल नहीं सकता। शान्तिपर्व ने भी सभी अंगों की महत्ता स्वीकृत की है । मनु एवं महाभारत ने राज्य के अंगों में स्वाभाविक एकता देखी है। सभी अंगों को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्यशील होना ही होगा। सभी अंग महत्त्वपूर्ण हैं, कोई दूसरे से हीन नहीं है, एक की महत्ता अपने स्थान पर है, वह दूसरे से बढ़कर नहीं है (मनु ६।२६५)। केवल जन-समूह से ही राज्य का निर्माण नहीं होता, प्रत्युत राज्य के लिए जन-समूह का भौगोलिक सीमाओं (राष्ट्र) के भीतर रहना परमावश्यक है, जन-समूह को किसी स्वामी के अनुशासन के अनुसार चलना होगा, राज्य के लिए एक विशिष्ट शासन-क्रम (अमात्य) होगा, उसके लिए एक सुव्यवस्थित आर्थिक व्यवस्था होगी (कोश), रक्षा के लिए बल होगा तथा होगी अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री। राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं (१) स्वामी, (२) शासनव्यवस्था, (३) निश्चित भूमि एवं जन-संख्या। ये चारों तत्त्व अति प्राचीन सूत्रकारों को भी विदित थे। देखिए गौतम ११११(राजा), आप० २।६।२५।१० (अमात्य), आप० २।१०।२५।११ (विषय, नगर, ग्राम), गौतम ११।५-८ (प्रजा)। अब हम सप्तांगों का क्रमानुसार वर्णन उपस्थित करेंगे। स्वामी (१) कतिपय ग्रन्थों में स्वामी या शासक की आवश्यकता पर बल दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (१।१४) में आया है कि देवों ने राजा के न रहने पर अपनी दुर्दशा देखी और तभी एकमत से उसका चुनाव किया । इससे प्रकट होता है कि सामरिक आवश्यकताओं ने स्वामित्व या नृपत्व को जन्म दिया। मनु (७।३ = शुक्रनीतिसार १७१) ने लिखा है-- "जब सभी भयाकुल हो इधर-उधर दौड़ने लगे और विश्व में कोई स्वामी नहीं था तब विधाता ने इस विश्व की रक्षा के लिए राजा का प्रणयन किया।" मनु ने मात्स्य न्याय ("बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को निगल जाती हैं", अर्थात् "बली दुर्वल को दबा बैठता है", या "जिसकी लाठी उसकी भैस" वाले सिद्धान्त) की ओर भी सकेत किया है (मनु ७.१४ एवं २०)। इस मात्स्य न्याय की विवेचना कौटिल्य, महाभारत तथा अन्य लोगों ने भी की है। शतपथब्राह्मण (११।६।२४) में आया है-“जब कभी अकाल पड़ता है तो बलवान् दुर्बल को दबा बैठता है, क्योंकि पानी ही न्याय है।" इसका तात्पर्य यह है कि जब वर्षा नहीं होती तब न्याय का राज्य समाप्त हो जाता है और मात्स्य न्याय कार्यशील हो जाता है। कौटिल्य का कहना है-"जब दण्ड का प्रयोग नहीं होता तब मात्स्य न्याय की दशा उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि दण्डधर के अभाव में बलवान् दुर्बल को खा डालता है।" कौटिल्य ने यह भी कहा है कि मात्स्य न्याय से अभिभूत होकर लोगों ने मनु वैवस्वत को अपना राजा बनाया। यही बात रामायण (२,अध्याय ६७),शान्तिपर्व (१५।३० एवं ६७।१६), ३. (दण्डः) अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुभावयति । बलीयानबलं हि ग्रसते दण्डधराभावे। को० १४; मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजा मनु वैवस्वतं राजानं चक्रिरे। कौ० ११३; मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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