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अध्याय २
राज्य के सात अंग
प्रायः सभी राजनीति शास्त्रज्ञों ने राज्य के सात अंग बतलाये हैं, यथा ( १ ) स्वामी ( शासक या सम्राट् ), (२) अमात्य, (३) जनपद या राष्ट्र ( राज्य की भूमि एवं प्रजा ), (४) दुर्ग ( सुरक्षित नगर या राजधानी), (५) कोश ( शासक के कोश में द्रव्यराशि), (६) दण्ड (सेना) एवं (७) मित्र ।' अंगों को प्रकृति भी कहा जाता है । राजनीति के ग्रन्थों में 'प्रकृति' शब्द राज्यों के मण्डल के अंगों का भी द्योतक कहा गया है (देखिए मनु ७ १५६ एवं कौटिल्य ६।२ ) । इस शब्द का सम्बन्ध मन्त्रियों से भी है (देखिए शुक्रनीतिसार २|७०-७३ ) । कहीं-कहीं इसका अर्थ 'प्रजा' भी है (देखिए खारवेल का अभिलेख ; नारद, प्रकीर्णक ५; रघुवंश ८।१८ ) । इन अंगों के क्रम एवं नामों में कहींकहीं बहुत अन्तर पाया गया है। जनपद के लिए जन या राष्ट्र शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । दण्ड के लिए बल तथा दुर्गं के लिए पुर का प्रयोग हुआ है । आश्रमवासिकपर्व ( ५1८) ने राज्य के आठ अंग गिनाये हैं। राजनीतिज्ञों ने शासक (राजा) को सप्तांगों में सर्वश्रेष्ठ माना है। कौटिल्य ने तो राजा को ही संक्षेप में राज्य कह डाला है । किन्तु कौटिल्य
यह सूत्र फांस के राजा चौदहवें लुई के "ल इतात स एस्त म्वाइ" (मैं ही राज्य हूँ) नामक सूत्र के समान नहीं है । कौटिल्य ( ८1१ ) ने स्पष्ट लिखा है कि राजा ही मन्त्रियों, कर्मचारियों एवं अधीक्षकों की नियुक्तियाँ करता है; वही अन्य प्रकृतियों पर विपत्तियाँ घहराने पर दुःखमोचन या साहाय्य का प्रबन्ध करता है, अर्थात् वहीं नियुक्त मन्त्रियों पर विपत्ति
१. स्वाम्यमात्य जनपद दुर्गकोशदण्डमित्राणि प्रकृतयः । कौटिल्य ६१, पृ० २५७; स्वाम्यमात्या जनो दुर्ग कोशो दण्डस्तथैव च । मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ याज्ञवल्क्य १।३५३; स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्र कोशदण्डौ सुहृत्तथा । सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्ग राज्यमुच्यते । मनु ६ । २६४; स्वाम्यमात्यदुर्ग कोशदण्ड राष्ट्रमित्राणि प्रकृतयः । विष्णुधर्मसूत्र ३।३३; स्वाम्यमात्यसुहृद् दुर्ग कोशदण्डजनाः । गौतमसूत्र ( सरस्वतीविलास द्वारा उद्धृत, पृ० ४५ ) । और भी देखिए शान्तिपर्व ६६ । ६४-६५, मत्स्यपुराण २२५।११ एवं २३६, अग्निपुराण २३३।१२, कामन्दक १।१६ एवं ४।१ २ । 'प्रकृति' शब्द का अर्थ अपरार्क (पृष्ठ ५८८ ) ने सुन्दर ढंग से किया है-यतः कार्यमुत्पद्यतेऽवतिष्ठते नियमेन भवति सा प्रकृतिः । यथा हिरण्यं कुण्डलस्य । राज्यं च विना स्वाम्या दिभिर्नोत्पद्यते, उत्पन्नमपि न तैर्विना चिरकालमनुवर्तते । ततो भवन्ति स्वाम्यादयो राज्याङ्गानि ।
२. राजा राज्यमिति प्रकृतिसंक्षेपः । कौटि० ८२; तत्कूटस्थानीयो हि स्वामीति । कौ० ८1१; सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः । वृगमात्यः सुहृच्छोत्रं मुख कोशो बलं मनः ॥ हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ०-शुक्रनीति० १६१-६२; सप्ताङ्गस्यापि राज्यस्य मूलं स्वामी प्रकीर्तितः । राजनीतिप्र०, पृ० १३३; सप्ताङ्गस्यास्य राज्यस्य त्रिदण्डस्येव तिष्ठतः । अन्योन्यगुणयुक्तस्य कः केन गुणतोऽधिकः ॥ तेषु तेषु हि कालेषु तत्तदङ्ग विशिष्यते । येन यत् सिध्यते कार्यं तत्प्राधान्याय कल्पते ॥ शान्तिपर्व मनु ( ६ । २६६-२६७) ने भी सर्वथा यही बात कही है। परस्परोपकारीवं सप्ताङ्गः राज्यमुच्यते ( मत्स्यपुराण २३६ । १ ) ।
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