SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास दत्तक---इस पर आगे एक अध्याय में विवेचन होगा। कृत्रिम (या कृत, नारद-दाय भाग ४६)--मनु (६।१६६), याज्ञवल्क्य (२।१३१), बौधायनधर्म सूत्र ( २।२। २५), मिताक्षरा आदि के मत से कृत्रिम वह व्यक्ति (उसे जो अपनाता है उसी की जाति का) है, जिसके माता होते और जो सम्पत्ति के लालच में अपनी सहमति से पूत्र बनता है। वह दत्तक पुत्र से निम्न बातों में भिन्न होता है; वह अपनी माता या पिता द्वारा नहीं दिया जाता, उसकी सहमति आवश्यक है, अर्थात् प्राचीन भारतीय व्यवहार (कानून) के अनुसार उसे बालिग होना चाहिये । ऐसा पुत्र आजकल केवल मिथिला (तिरहत) एवं उसके पार्श्ववर्ती जनपदों में तथा मलाबार (केरल) के नम्बूद्री ब्राह्मणों में ही पाया जाता है । गढज-सम्भवतः ऋग्वेद (२।२६।१) के इस कथन में इसकी ओर संकेत है; 'हे धतवह (नैतिक व्यवहार ढोनेवाले) एवं सतत प्रवहमान (क्रियाशील) आदित्य लोगों, मुझे पाप से उसी प्रकार दूर रस कार गुप्त रूप में बच्चा जननेवाली स्त्री (उसे दूर करती है)। कानीन--यह नाम 'कन्या' शब्द से निकला है। पाणिनि (४।१।११६) ने इसे 'कुमारी के बच्चे' के अर्थ में प्रयुक्त किया है (कन्यायाः कनीन च) तथा काशिका ने इस विषय में कर्ण एवं व्यास को कानीन पुत्र कहा है। 'कानीन' शब्द 'अथर्ववेद' (५।५।८) में आया है, 'वाजसनेयी संहिता' (३०।६) में 'कुमारीपुत्र' आया है। नारद (दायभाग १७) के मत से कानीन, सहोढ एवं गूढज उस व्यक्ति के पुत्र हैं, जो उनकी माँ से विवाह करता है, ऐसे पुत्र अपनी माता के पति की सम्पत्ति पाते हैं । पारिजात (वि० र० पृ० ५६५) का कथन है कि कानीन एवं सहोढ अपनी माता के पुत्रहीन पिता के पुत्र हो जाते हैं । किन्तु यदि उनकी माता के पिता पुत्रवान् हैं तो वे अपनी माता के पतियों के पुत्र हो जाते हैं, किन्तु यदि दोनों पुत्रहीन हों तो वे दोनों के पुत्र हो जाते हैं। __ क्रीत---वसिष्ठ (१७१३०-३२) का कथन है कि हरिश्चन्द्र ने शुनःशेप को अजीगत से खरीदा, इस तरह शुनःशेप क्रीत पुत्र थे। स्वयंदत्त--वसिष्ठ (१७।३३-३५) का कथन है कि शुनःशप विश्वामित्र के स्वयंदत्त पुत्र हुए (ऐतरेय ब्राह्मण ३३१५)। पौनर्भव--- (किसी पुनर्भू का पुत्र ) । देखिये इस विषय में इस ग्रन्थ का भाग २ अध्याय १४, जहाँ 'पुनर्भू' एवं विधवा-विवाह का विवेचन किया गया है। जनयितुरसत्यन्यस्मिापत्रे स एव द्विपितृको द्विगोत्रो वा द्वयोरपि स्वधारिक्थभाग्भवति--अर्थशास्त्र (३७); 'व्यामुष्यायणस्य विजातीयानां च विभागे विशेषः कलावसत्वात्रोच्यते ।' वि० ताण्डव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy