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विभिन्न पुत्रों की परिभाषा
८८६ नहीं हो पातीं और अपने पिता के घर में ही पड़ी कौमार दशा में बूढ़ी हो जाती हैं (देखिये ऋ० २।१७।७-'अमाजरिव पित्रोः सचा सती' एवं ऋ० ४१॥५)। 'अथर्ववेद' (१।१७।१)में आया है--"भ्रातृहीन बहिनों के समान वे श्रीहीन होकर रहें।" यास्क ने अर्थ किया है कि जिस प्रकार भ्रातृहीन कन्याएं विवाहित होकर अपने पतियों के कुल के विकास में बाधक होती हैं और (अपने पुत्रों द्वारा) पिण्डदान पर भी नियन्त्रण रखती हैं, उसी प्रकार ये रक्त धमनियाँ आदि हैं। इसी प्रकार यास्क (निरुक्त ३।४) ने ऋग्वेद (३।३१।१) को उद्धृत किया है--"पति घोषित (प्रण) करता है कि पिता (पुत्री के पुत्र को) अपना पुत्र समझे।" निरुक्त (३१५) ने एक वैदिक वचन उद्धृत कर कहा है--भ्रातृहीन (कन्या) से विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह (अपने पिता को) पुत्र हो जाती है । भ्रातृहीन कुमारी स्पष्ट समझौते से पुत्र की भाँति नियुक्त की जा सकती है, किन्तु गौतम (२८।१७) के मत से एक सम्प्रदाय (जिसकी बात उन्हें स्वीकार नहीं है) का सिद्धान्त यह था कि भ्रातहीन कन्या केवल पिता की इच्छा से ही पुत्रिका बन जाती है, अतः उससे विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि (बिना स्पष्ट प्रतिज्ञा के भी) उसका पिता उसे अपनी पुत्रिका बनाने की इच्छा रख सकता है। मनु (३।११) ने भी इसी प्रकार सावधान किया है। याज्ञवल्क्य (१।५ अरोगिणीं भ्रातृमतीम् ) के समय तक भ्रातृहीन कन्या से विवाह न करने की बात चलती आयी थी, यद्यपि आधुनिक काल में बहुत-से लोग ऐसी कन्या से विवाह करने को सन्नद्ध रहते हैं, यदि उसका पिता धनी हो। मनु (६।१४०) का कथन है कि पुत्रिकापुत्र जो तीन पिण्ड देता है वे क्रम से माता, मातामह एवं प्रमातामह के लिए होते हैं।
अब मलाबार (केरल) के नम्बूद्री ब्राह्मणों को छोड़कर कहीं भी किसी के द्वारा पुत्रिकापुत्र को मान्यता नहीं दी जाती । ऐसा लगता है कि 'स्मृतिचन्द्रिका' (२, पृ० २८६) को, जो मद्रास का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है, मलाबार में पुत्रिकापुत्र के प्रचलन की बात नहीं ज्ञात थी ।७४
क्षेत्रज-नियोग-प्रथा से ही इस प्रकार के पुत्रत्व की उद्भुति हुई है। हमने नियोग-प्रथा के विषय में विस्तार के साथ इस ग्रन्थ के भाग २ के अध्याय १३ में लिख दिया है। एक बात की चर्चा वहाँ नहीं हुई है, और वह यह है कि ब्रह्मपुराण' के कथन से प्रकट होता है कि क्षेत्रज पुत्रों का प्रचलन क्षत्रियों में बहुत था, क्योंकि उन्हें ऋषियों ने दुष्कृत्यों के कारण शापित किया था कि उन्हें पुत्र न हों, या वे युद्ध में लगातार लगे रहते थे। ७५ बौधायन० (२।२।२१-२३) एवं कौटिल्य (३।७) ने घोषित किया है कि क्षेत्रज दो पिताओं का पुत्र होता है, उसके दो गोत्र होते हैं, वह दोनों पिताओं को पिण्ड देता है (यदि उसके उपरान्त औरस पुत्र न उत्पन्न हो जायतो),दोनों की सम्पत्ति लेता है, और प्रत्येक पिण्ड देते समय वह दो नामों से सम्बोधित करता है। यह जानने योग्य है कि 'मिताक्षरा' (याज्ञ० २।१२७) ने क्षेत्रज को द्वयामुष्यायण कहा है। ‘मदनपारिजात'(पृ० ६५१) ने भी क्षेत्रज एवं दयामष्यायण को समानार्थक माना है। विवादताण्डव का कथन है कि द्वयामुष्यायण एवं अन्तर्जातीय विवाहों से उत्पन्न पुन कलियम में वजित हैं अत: उनके भागों के नियमों का विवेचन हम नहीं करेंगे। ६
७४. अत एवास्माभिरसवर्षपुत्राणां दत्तकेतरेषां गौणपुत्राणां पुत्रिकायास्तत्सुतस्य च भागविधयो न निबध्यन्ते संप्रत्यननुष्ठीयमानत्वाद् वृथा च प्रन्थविस्तरापत्तेः । स्मृतिच० (२, पृ० २८६)।
७५. राजां तु शापदग्धानां नित्य क्षयवता तया । अर्थ संग्राम शीलानां न कदाचिद् भवन्ति ते ॥ औरसो यदि वा पुत्रस्त्वथवा पुत्रिकासुतः । विद्यते न हि तेषां तु विज्ञेयाः क्षेत्रजादयः ।। ब्रह्मपुराण (अपराकं पृ० ७३७) ।
७६. स एष द्विपिता द्विगोत्रश्च द्वयोरपि स्ववारिक्थ माग्भवति । अयाप्युदाहरन्ति । द्विपितुः पिण्डदानं स्यात पिण्डे पिण्डे च नामनी । त्रयश्च पिण्डाः षण्णां स्युरेवं कुर्वन मुह्यति ॥ इति । बौ० घ० सूत्र (२।२।२१-२३);
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