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________________ ८८८ धर्मशास्त्र का इतिहास किया जाय । आपस्तम्ब एवं बौधायन के मत से वही पुत्र औरस है जो पति की जाति वाली पत्नी से उत्पन्न हो; किन्तु यह एक आदर्शवादी दृष्टिकोण है । मिताक्षरा (याज्ञ ० २।१३३), पारिजात, अपरार्क आदि ने उस पुत्र को भी औरत कहा है जो अनुलोम क्रम का है; यथा ब्राह्मण का क्षत्रिय पत्नी से या क्षत्रिय का वैश्य पत्नी से। एक अपवाद है ब्राह्मण का पुन शूद्र पत्नी से, जिसे शौद्र या पारशव की संज्ञा मिली है और जो पारिभाषिक औरसों से भिन्न माना गया है। औरस पुत्र की स्थिति तभी मान्य है जब कि उसका बीजारोपण एवं जन्म विवाह के उपरान्त ही हो, ऐसा सभी स्मृतिकारों का कथन है। ऋग्वेद-काल से ही लोग औरस पुत्र के लिए प्रार्थना करते आ रहे हैं और दूसरे के पुत्र को गोद लेने में अरुचि प्रकट करते रहे हैं। ऋग्वेद (७।४१७-८) के ऋषि ने घोषित किया है--"क्योंकि दूसरे का (जो सम्बन्धित नहीं है) धन (पुत्र ) नहीं लेना चाहिये , अत: हम अपने धन (अपने शरीर के पुत्र) के स्वामी हों ; हे अग्नि, दूसरे का बच्चा अपनी सन्तान नहीं हो सकता; मूर्ख के विषय में ऐसा हो सकता है; वे हमारे पथ को भ्रष्ट न करें। एक अपरिचित को, जो दूसरे का जन्मा हुआ है, भले ही वह अति शोभनीय हो, नहीं ग्रहण करना चाहिए, उसके विषय में (अपने पुत्र के रूप में) मन में सोचना भी नहीं चाहिए। वह उसी घर को (जहाँ से वह आया था) चला जाता है; एक शक्तिशाली विजयी एवं नवजात पूत्र हमारे पास आये।७३ आजकल न्यायालय द्वारा केवल औरस एवं दत्तक को ही मान्यता प्राप्त है, अन्य पुत्रों के प्रकार का प्रचलन नही रहा। किन्तु कुछ प्रान्तों में, यथा मिथिला (तिरहुत) में कृत्रिम एवं मलाबार के नम्बूद्री ब्राह्मणों में पुत्रिकापुत्र को मान्यता दी जाती है। इस विषय में आगे भी लिखा जायगा। पुत्रिकापुत्र--इसके दो अर्थों को हमने गत पृष्ठों में पढ़ लिया है। कौटिल्य (३७), याज्ञ० (२।१२८) एवं मनु (६।१३४) ने पुत्रिका या पुत्रिकापुत्र को औरस के सदृश ही माना है। ऋग्वेद में भी पुत्रिका की ओर संकेत मिलते हैं। वसिष्ठ (१७।१६) ने पुत्रिका के सम्बन्ध में ऋग्वेद (१।१२४७) को उद्धृत किया है जिसमें उषा के आगमन के विषय में चार उपमाएँ दी गयी हैं ; 'उस स्त्री के समान, जिसे भाई न हो और जो (अपने) पुरुष सम्बन्धियों के पास लौट आती है,......मुसकराती हुई कुमारी के समान वह अपने सौन्दर्य को अनावृत करती है।' निरुक्त (३५) ने प्रथम भाग का अर्थ लगाया है कि भ्रातृहीन कन्या (विवाहोपरान्त) अपने पिता की शाखा को चलाने के लिए तथाई अपने पिता के पितरों को पिण्डदान करने के लिए चली आती है और अपने पति की शाखा में नहीं जाती । ऋग्वेद में कई एक स्थानों पर भ्रातृहीन कुमारियों की विवाह-सम्बन्धी कठिनाइयों की ओर संकेत मिलते हैं; वे बहुधा विवाहित ७३. परिषय हरणस्य रेक्णो नित्यस्य रायः पतयः स्याम । न शेषो अग्ने अन्यजातमस्त्यचेतानस्य मा पा वि दुक्षः। न हि प्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ । अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभाषाळेतु नव्यः ।। ऋ० (७।४।७-८) । ये पद्य अस्पष्ट हैं, विशेषतः प्रथम पद्य । ऊपर जो अर्थ दिया गया है वह अति प्राचीन लेखक यास्क (निरुक्त ३।१-३) का है। यास्क का कथन है कि ये मन्त्र इस मत का समर्थन करते हैं कि पुत्र उत्पन्न करनेवाले का होता है न कि गोद लेनेवाले का--'तद्यथा जनयितुः प्रजा एवमर्थाये ऋचावुदाहरिष्यामः । परिषधम् ।' मिलाइये आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।५)---'उत्पादयितुः पुत्र इति हि ब्राह्मणम्।' निर्णयसिन्धु का कथन है कि 'नहि ग्रमाय' पद्य यह नहीं कहता कि पुत्रों को दत्तक रूप में लेना वर्जित है, प्रत्युत वह औरस की प्रशंसा में कहा गया है, नहीं तो यह शुनःशेप की गाथा के नियम के विपरीत पड़ जायगा, जिसमें आया है कि शुनःशेप को पुत्र-रूप में ग्रहण किया गया और शुनःशेप ने कहा है--'मैं आपका पुत्र बन जाऊँ।' नि० सि० (३, पूर्वार्ध, पृ० २५०) एवं ए. बा० (३३॥५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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