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गौण, मुख्य पुत्रों का अन्तर; प्रतिनिधि-विचार
उत्पत्ति हुई है; वे उनके पुत्र नहीं हैं जो उन्हें ग्रहण करते हैं। बृहस्पति ने लिखा है -- "मनु ने क्रम से तेरह पुत्रों की गणना की है, किन्तु उनमें केवल औरस एवं पुत्रिका ही कुल को चलाने के लिए समर्थ हैं। जिस प्रकार घी के अभाव में यज्ञ के समय तेल को अच्छा कहा गया है उसी प्रकार औरस एवं पुत्रिका के अभाव में अन्य पुत्रों के ग्यारह प्रकारों को मान्यता मिली है (वे केवल प्रतिनिधि हैं न कि वास्तविक ) । ७२ यद्यपि याज्ञ० (२1१३२ ) ने घोषित किया है कि बारह पुत्रों में प्रत्येक क्रमानुसार प्रत्येक पूर्ववर्ती के अभाव में उत्तराधिकार पाता है, किन्तु पिण्डदान के कर्म में इनकी योग्यता पृथक्पृथक् होती हैं। इस विषय में मनु ( ६ । १६१) कोई सन्देह नहीं छोड़ते; " उस व्यक्ति को जो क्षेत्रज जैसे हीन पुत्रों के द्वारा नरकों के अंधकार से बाहर जाना चाहता है, वैसे ही फल प्राप्त होते हैं जो उस व्यक्ति को मिलते हैं जो छेद वाली नौका से जल को पार करना चाहता है ।" इसका तात्पर्य यह है कि गौण पुत्रों से वह आध्यात्मिक अथवा धार्मिक फल नहीं प्राप्त हो सकता जो औरस पुत्र से प्राप्त होता है। मेधातिथि (मनु ६ । १६६ ) एवं दत्तकमीमांसा ने इसे स्पष्ट कर दिया है ।
औरस पुत्र द्वारा सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ होता है, प्रतिनिधि पुत्रों से बहुत कम प्राप्त होता है । विधवा पुत्रहीन पति का श्राद्ध कर सकती है, किन्तु वह पार्वण श्राद्ध नहीं कर सकती, अतः उसका कर्म उतना लाभप्रद नहीं होता जितना कि पुत्र द्वारा सम्पादित । जैमिनि ( ६।३।१३- ४१ ) ने प्रतिनिधि के विषय में कई सूत्र दिये हैं। मुख्य निष्कर्ष यह है कि सामान्यतः देवता ( वेद द्वारा किसी यज्ञ में पूजा के लिए निर्धारित देवता), अग्नि ( आहवनीय तथा अन्य पूत अग्नियाँ), मन्त्र ( जो किसी कर्म में कहा जाता है), कुछ क्रिया-संस्कार जो किसी विशिष्ट यज्ञ में किये जाते हैं ( यथादर्श - पूर्ण मास में 'समिधो यजति' आदि) तथा स्वामी ( याज्ञिक या यजमान) के लिए कोई अन्य प्रतिनिधि नहीं होता । शबर (जैमिनि ६।३।३५ ) ने स्पष्ट किया है कि वैदिक क्रिया प्रतिनिधि की नियुक्ति से असम्पूर्ण हो जाती है और उससे धार्मिक कृत्य का पूर्ण फल नहीं प्राप्त होता । सत्याषाढश्रौतसूत्र ( ३19 ) का कथन है कि याज्ञिक, पत्नी, पुत्र, स्थान (देश), काल आदि का ( वैदिक यज्ञ या कृत्य के लिए ) कोई अन्य प्रतिनिधि नहीं हो सकता । अतः स्पष्ट है कि अति प्राचीन लेखकों द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोणों में, जहाँ तक प्रतिनिधि पुत्रों द्वारा आध्यात्मिक फल प्राप्ति का प्रश्न है, बहुत अन्तर पाया जाता है। मानव का ऐसा सहज स्वभाव है कि वह कठोर नियमों को सरल बनाने का प्रयत्न करता है, इसी से कालान्तर में ऐसा सोचा जाने लगा कि गौण पुत्रों से भी आध्यात्मिक कल्याण प्राप्त किया जा सकता यद्यपि वह औरस पुत्र से उत्पन्न कल्याण के बराबर नहीं हो सकता । लगभग दो सहस्र वर्षों से स्मृतियों क्षेत्र एवं अन्य पुत्रों को वर्जित कर रखा है । बृहस्पति का कथन है कि मनु ने सर्वप्रथम नियोग की विधि का वर्णन किया है, किन्तु आगे उसे गर्हित कह दिया हैं, क्योंकि द्वापर एवं कलियुग में नियोग का व्यवहार असम्भव है, क्योंकि मनुष्य के ज्ञान एवं तप का ह्रास हो गया है ( देखिये इस ग्रन्थ का भाग २ अध्याय १३ ) । शौनक (अपरार्क पृ० ७३६) ने कलियुग में औरस एवं दत्तक के अतिरिक्त अन्य पुत्रों को वर्जित ठहरा दिया है।
हम सभी पुत्रों के विषय में संक्षेप में कुछ टिप्पणियाँ उपस्थित करेंगे ।
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औरस -- बोधा० (२।२।१४ ), मनु ( ६ । १६६), वसिष्ठ ( १७।१३), विष्णु ० ( १५/२), कौटिल्य ( ३७ ) आदि ने उस पुत्र को औरस कहा है जो शास्त्र द्वारा व्यवस्थित नियमों के अनुसार विवाहित पत्नी से पति द्वारा उत्पन्न
७२. पुत्रास्त्रयोदशाः प्रोक्ता मनुना येनुपूर्वशः । सन्तानकरणं तेषामौरसः पुत्रिका तथा ॥ आज्यं विना यथा लं सद्भिः प्रतिनिधिः स्मृतम् । तथैकादशपुत्रास्तु पुत्रिकौरसयोविना ॥ बृहस्पति (अपरार्क, पृ० ७३३; व्य० ० पृ० ४३६ ) ।
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