SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८६ धर्मशास्त्र का इतिहास किसी को तो उनका अभिभावक होना ही पड़ेगा ! जब स्मृतियाँ उन्हें उनकी माता के पति की संततिरूप में ग्रहण करती हैं तो यह स्पष्ट है कि उन्होंने उनके भरण-पोषणएवं रक्षण की व्यवस्था कर दी है। बृहस्पति का कथन है कि यदि दत्तक, अपविद्ध, क्रीत, कृत एवं शौद्र शुद्ध जाति एवं शुद्ध कर्म के हैं तो वे मध्यम कहलाते हैं, किन्तु क्षेत्रज, पोनर्भव, कानीन, सहोढ एवं गूढज सज्जनों द्वारा गर्हित माने जाते हैं । 'कानीन कुमारी कन्या का पुत्र है, अतः वह तब तक अपनी कुमारी ता के पिता के यहाँ रहता है जब तक उसकी माता विवाहित न हो जाय (याज्ञ. २११२६),किन्तु जब कमारी विवाहित हो जाती है तो वह उसके (माता के) पति के संरक्षण में चला जाता है (मन ६।१७२)। इस बात से स्पष्ट है कि पुत्र वाली कुमारी से विवाह करने के लिए जो व्यक्ति सन्नद्ध होता है वह उसके पुराने दोषों को क्षमा कर देता है। इसो भाँति सहोढ के विषय में भी कहा जा सकता है कि या तो वह विवाह करने वाले से उत्पन्न हआ है या उसके होने वाले पिता ने अपनी होने वाली पत्नी के दोषों को क्षमा कर दिया है। इससे प्रकट होता है कि जब इस प्रकार से पति ने प्रकट रूप से कोई विरोध नहीं किया तो किसी को भी यह कहने का अधिकार नहीं है और न प्रमाण उपस्थित करने की आवश्यकता है कि कानीन या सहोढ पुत्र छोड़ दिया जाय। यह बात गूढज के विषय में भी प्रयुक्त है । हमने इस ग्रंथ के भाग २ के अध्याय ११ में देख लिया है कि यदि पत्नी व्याभिचार की दोषी है तो पति को उसे शुद्ध करने के कुछ अधिकार प्राप्त हैं, किन्तु यदि वह क्षमा कर दे तो स्मृतियां उसे यह नहीं आज्ञापित करतीं कि वह उसे त्याग दे। ये स्मतियां, यथा--गौतम, वसिष्ठ एवं नारद, जो स्त्रियों के व्यभिचारों के प्रति कठोर हैं, गृढ एवं सहोढ को गौण पून के रूप में ग्रहण करती हैं। इन दो प्रकार के मनोभावों को हम इसी रूप से सुलझा सकते हैं कि जब पति विवाह करके स्त्री के नैतिक दोषों को क्षमा कर देता है, तो स्मृतियों ने भी अवैध संसर्ग से उत्पन्न पुत्रों के भरण-पोषण, रक्षण एवं उत्तराधिकार की व्यवस्था दे दी है। पौनर्भव, कानीन, सहोढ एवं गूढज के विषय में मध्यकाल के टीकाकारों में भी मतभेद रहा है। मेधातिथि (मनु ६।१८१) ने उन्हें केवल भोजन-वस्त्र का अधिकारी माना है, किन्तु मिताक्षरा (याज्ञ ० २।१३२) ने कानीन एवं अन्यों को औरस तथा अन्य पुत्रों के अभाव में पिता की सम्पत्ति का अधिकारी माना है । मिताक्षरा (याज्ञ. १९६०) का कथन है कि कानीन, सहोढ एवं गूढज व्यभिचार के फल होने के कारण अपनी माता के पति की जाति के नहीं कहे जा सकते, वे सवर्ण पुत्रों, यहां तक कि अनुलोम एवं प्रतिलोम पुत्रों से भी वास्तव में भिन्न हैं। गौण पुत्रों से प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक फल के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है । वैदिक एवं स्मृतिसाहित्य में पुत्र के विषय में जो स्तुति-गान है वह औरस पुत्र के ही लिए है। मनु (६१८०) का कथन है कि औरस एवं पुत्रिका के अतिरिक्त जो क्षेत्रज आदि ग्यारह प्रकार के पुत्र हैं वे वास्तविक पुत्र के प्रतिनिधि मात्र हैं और धार्मिक कृत्यों को समाप्त न होने देने के लिए नियन्त्रण-स्वरूप उनको मान्यता प्रदान हुई है। मनु (६।१८१) ने अन्तिम निष्कर्ष दिया है कि क्षेत्रज-जैसे पुत्र, जो दूसरों के बीज से उत्पन्न हैं, वास्तव में उन्हीं के पुत्र हैं जिनके बीज से उनकी ७१. दत्तोऽपविद्धः क्रीतश्च कृतः शौद्रस्तथैव च । जातिशुद्धाः कर्मशुद्धा मध्यमास्ते सुता मताः ।। क्षेत्रजो गहितः सद्भिस्तथा पौनर्भवः सुतः । कानीनश्च सहोढश्च गूढोत्पन्नस्तथैव च ॥ बृहस्पति (वि० र० पृ० ५५२) हारीत (वि० र० पृ० ५५२) ने क्रोत, स्वयंदत्त एवं शौद्र को 'काण्डपृष्ठ' को संज्ञा दी है । शूद्रापुत्राः स्वयंदत्ता ये चैते क्रीतकास्तथा । सर्वे ते शौद्रिकाः पुत्राः काण्डपृष्ठा न संशयः ।। स्वकुलं पृष्ठतः कृत्वा यो वै परकुलं व्रजेत् । तेन दुश्चरितेनासौ काण्डपृष्ठो न संशयः ।। 'काण्डपृष्ठ' का शब्दार्थ है "जो अपनी पीठ पर बाणों को लेकर चलता है" (सम्भवतः वह ब्राह्मण जो आयुधजीवी है)। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy