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गौण पुत्रों के लांछन का परिहार
१८५ विभाजन (प्रत्येक में छ: ) है--बन्धुदायाद या दायादबान्धव (मनु ६१५८-१५६; नारद, दायभाग, ४७) एवं अदायादबान्धव (मनु ६१६०; वसिष्ठ १७।३८, नारद, दायभाग, ४७) । मनु के अनुसार पहले दल में ये हैं-औरस (पुत्रिका भी), क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम, गूढ़ोत्पन्न एवं अपविद्ध । ये लोग बन्धुदायाद या दायादबान्धव इसलिए कहे जाते हैं कि ये अपने पिता एवं दायादों (सन्निकट के उत्तराधिकारियों के अभाव में) की सम्पत्ति पाते हैं । दूसरे दल में ये हैं (मनु ६।१६०)--कानीन, सहोढ, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त एवं शौद्र । ये लोग केवल बान्धव हैं अर्थात् ये अपने पिता का गोत्र ग्रहण करते हैं, किन्तु पिता के दायादों की सम्पत्ति नहीं पाते । स्पष्ट है, इस विषय में भी स्मृतियों में मतैक्य नहीं है। वसिष्ठ० (१७।५-२५), शंख-लिखित (वि० २० पृ० २४७), नारद (दायभाग, ४७) एवं हारीत ने प्रथम दल में औरस, क्षेत्रज, पुत्रिकापुत्र, पौनर्भव, कानीन एवं गूढज को रखा है और शेष दूसरे दल में हैं। कौटिल्य का कथन है कि केवल औरस अपने पिता के दायादों का उत्तराधिकार प्राप्त करता है, और अन्य (जो पिता द्वारा उत्पन्न नहीं हैं) केवल पालने वाले पिता का उत्तराधिकार पाते हैं, दायादों का नहीं (अर्थशास्त्र ३।७)। गौतम (२८१३२) के मत से कानोन तथा अन्य गोत्रमाज पुत्र (२८१३१) औरस तथा अन्य रिक्थमाज पुत्रों के अभाव में पिता की सम्पत्ति का एक-चौथाई भाग पाते हैं और सम्पत्ति का शेषांश सपिण्ड लोग ले लेते हैं; किन्तु कौटिल्य, देवल एवं कात्यायन (८५७) के मत से दत्तक, क्षेत्रज तथा अन्य पुत्र यदि वे पिता की जाति के हैं तो औरस के उत्पन्न हो जाने से केवल एकतिहाई का अधिकार पाते हैं, किन्तु यदि वे असमान वर्ण के हैं तो उन्हें केवल (औरस के उत्पन्न हो जाने के उपरान्त) भोजन-वस्त्र मिलता है। यदि पुत्रहीन व्यक्ति अपनी पुती को पुत्रिका बनाता है या अपने को क्लीब (नपुंसक) समझकर क्षेत्रज या दत्तक पुत्र लेता है और आगे चलकर उसे औरस पुत्र प्राप्त हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में विभाजन की क्या गति होगी, इस विषय में मतैक्य नहीं है । मनु (६।१६३) का कथन है कि केवल औरस को ही सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति पाने का अधिकार है, अन्य प्रकार के पुत्रों को निर्दयता के दोष से बचने के लिए केवल भोजन-वस्त्र देना चाहिये । किन्तु उस स्थिति में जब पुत्रिका के ग्रहण-उपरान्त औरस उत्पन्न हो जाता है तो मनु (६।१३४) ने व्यवस्था दी है कि दोनों को बराबर-बराबर मिलना चाहिये । मनु (६।१६४) ने औरस के लिए कहा है कि वह क्षेत्रज का पांचवां या छठा भाग दे दे । विभिन्न प्रकार के पुत्रों के स्थान एवं उनके भागों के विषय में जो विरोधी एवं सन्दिग्ध बातें पायी जाती हैं, उससे एक अनुमान निकाला जा सकता है कि कई प्रकार के पुत्रों की संस्था या प्रथा बहुत प्रचलित नहीं थी और सामान्यतः उसको मान्यता नहीं प्राप्त थी, यह केवल कुछ स्थानों एवं जातियों में प्रचलित थीं और प्राचीन स्मृतियों के समय में भी एक प्रकार से मतप्राय थी।
गूढज, कानीन एवं सहोढ के विषय में यह कहा जा सकता है कि वे अवैधानिक संसर्ग के फल हैं किन्तु किसी के द्वारा तो उनका पालन-पोषण होना ही चाहिये। किसी को तो उनकी जीविका के लिए प्रबन्ध करना चाहिये ही और
गोत्रभाजश्चौरसेन सहाभिधानात् । सर्वे चैते सजातीयाः । हरदत्त। रिक्यभाज का अर्थ यहाँ स्पष्ट नहीं है । क्या इसका अर्थ यह है कि वे अपने पिता एवं बन्धुओं को सम्पत्ति ग्रहण करते हैं ?' या इसका अर्थ यह है कि 'वे केवल अपने पिता की सम्पत्ति लेते हैं तथा औरों को नहीं।' देवल का मत है कि प्रथम अर्थ में बन्धुदायाद को सम्पत्ति भी सम्मिलित है, 'तेषां षड् बन्धुदायादाः पूर्वेन्ये पितुरेव षट् ।' देवल (दायभाग १०७ पृ० १४७) । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१३२) एवं दायभाग ने प्रथम अर्थ को ही लिया है-औरसादयः षड् न केवलं पितृदायहराः किन्तु बन्धूनामपि सपिण्डादीनां दायहराः । अन्ये परभूताः पितुरेव परं दायहरा न सपिण्डादीनाम् । दायभाग(१०८, पृ०१४७)। स्वयंजातः पितबन्धूनां च दायादः। परजातः संस्कर्तुरेव न बन्धूनाम् । अर्थशास्त्र (३।७) ।
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