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धर्मशास्त्र का इतिहासे
तालिका उपस्थित की। देवल के आधार पर बहुत से पुत्रों के प्रकार तीन या चार कोटियों में रख जा सकते हैं । ६६ दत्तक, क्रीत, कृत्रिम, स्वयंदत्त एवं अपधिद्ध नामक पाँच पुत्र ऐसे हैं जो विभिन्न परिस्थितियों के अन्तर्गत सम्बद्ध होते हैं । इनमें कोई भी माता के अवैध संसर्ग का फल नहीं है। एक ही बात, जो सब में पायी जाती है, वह यह है कि वे किसी व्यक्ति के पुत्र होते हैं और दूसरे द्वारा अपने पुत्र के रूप में ग्रहण किये जाते हैं। इसी प्रकार पौनर्भव एवं शौद्र व्यक्ति के ही वैधानिक पुत्र हैं, किन्तु उनके साथ निन्दा की भावना लगी हुई है, क्योंकि प्रथम के विषय में माता ने पुनर्विवाह किया (जिसे स्मृतियों ने बहुत गर्हित माना है) और दूसरे में दूसरे व्यक्ति ने शूद्रा नारी से विवाह किया ( यह भी स्मृतियों द्वारा गर्हित माना गया है, किन्तु मना नहीं किया गया है, जैसा कि याज्ञ० १।५६ ने कहा है ) । मनु ( ३।१८१) ने द्विज के पौनर्भव पुत्र को द्विज ही कहा है, किन्तु उसे श्राद्ध के समय आमन्त्रित किये जाने के अयोग्य ठहराया है। पुत्रिका (पुत्र के समान नियुक्त कन्या) व्यक्ति को अपनी पुत्री है और पुत्रिकापुत्र व्यक्ति का अपना पौत्र है, ये दोनों गोद लिये जाने के विशिष्ट उदाहरण हैं, और यहाँ माता के अवैधानिक संसर्ग की तो बात ही नहीं उठती। तो, तेरह प्रकार के पुत्रों
पुत्र अवैधानिक संसर्ग से पूर्णतया अछूते हैं । अब चार बच रहते हैं; क्षेत्रज, गूढ़ोत्पन्न, कानीन एवं सहोढ । क्षेत्रज की अपनी विशिष्ट कोटि है और वह संसार भर के अधिकांश प्राचीन देशों के एक प्रचलित व्यवहार का अवशेष मात्र था, , जिसे ईसा की कई शताब्दियों पूर्व आपस्तम्ब एवं उनसे पूर्व के लेखकों ने गर्हित मान लिया था । किन्तु यह बात कही जा सकती है कि मध्यकाल के कुछ लेखकों ने दत्तक क्रीत आदि गौण पुत्रों में से बहुतों को औरस पुत्र के न रहने पर, किसी व्यक्ति द्वारा रखे जाने की व्यवस्था दी है। अनुशासनपर्व ( ४६ । २०-२१ ) एवं नीलकण्ठ की टीका द्वारा यह अभिव्यक्त है कि स्मृतियों ने इस बात पर बल दिया था कि ऐसे पुत्रों के संस्कार अवश्य कर दिये जाने चाहिए, अन्यथा उन्हें उनके माता-पिता छोड़ देंगे या वे बेचारे अवैधानिकता के गहन गह्वर में पड़े रह जायेंगे ।
इन विभिन्न प्रकार के पुत्रों के स्थान एवं उनके अधिकारों के विषय में सूत्रों एवं स्मृतियों के वचनों में बड़ा मतभेद एवं सन्दिग्धता पायी जाती है। गौतम ने, जो सम्भवतः ज्ञात प्राचीन सूत्रकारों में सबसे प्राचीन हैं, पुत्रिकापुत्र को दसवाँ स्थान दिया है, बौधायन, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति एवं देवल ने उसे दूसरा स्थान दिया है तथा वसिष्ठ, शंख - लिखित, नारद एवं विष्णु ने उसे तीसरा स्थान दिया है। मनु, गौतम, बौधायन, बृहस्पति एवं ब्रह्मपुराण के अतिरिक्त / जिन्होंने दत्तक को तीसरा या चौथा स्थान दिया है), अधिकांश लेखकों ने दत्तक को बहुत ही हीन स्थान दिया है । कुछ ग्रन्थों में बारहों प्रकार दो कोटियों में रखे गये हैं । गौतम ( २८।३०-३१) के मत से औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम, ढोपन एव अपविद्ध रिक्थमाज ( रिक्थाधिकार पानेवाले ) हैं और सगोत्र ( अपने पिता के गोत्र वाले ) कहे जाते हैं, किन्तु अन्य शेष छः प्रकार केवल गोत्र ग्रहण करते हैं अर्थात् गोत्रभाज होते हैं किन्तु सम्पत्ति नहीं पाते (रिक्थाधिकारी नहीं होते ) । बौधायन० (२।२।३६-३७) ने भी रिक्थभाज एवं गोत्रभाज शब्दों का व्यवहार किया है किन्तु गौतम से अन्तर दिखाकर पुत्रिकापुत्र को रिक्थभाजों के अन्तर्गत रखा है और उसे गोत्र भाजों से पृथक् कर दिया है। ७०
दूसरा
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६६. एते द्वादश पुत्रास्तु सन्तत्यर्थ मुदाहृताः । आत्मजाः परजाश्चैव लब्धा यादृच्छिकास्तथा । देवल (दायभाग १० ७, पृ० १४७; वि० २० पृ० ५५०; हरदत्त, गौतम ) । औरस, पुत्रिका, पौनर्भव एवं शौद्र 'आत्मज' कहे जायेंगे; क्षेत्रज 'परज' कहा जायगा; दत्तक, कृत्रिम, क्रोत, स्वयंवत्त एवं अपविद्ध 'लब्ध' कहे जायेंगे (और 'परज' मी ); तथा गूढज, कानीन एवं सहोढ 'यादृच्छिक' कहे जायेंगे ।
७०. पुत्रा औरसक्षेत्रजदत्त कृत्रिम गूढोत्पन्नापविद्धा रिक्थभाजः । कानीनसही पौनर्भवपुत्रिकापुत्रस्वयदत्तकीता गोत्रभाजः । गौतम ( २८/३०-३१ ) ; एते गौत्रभाजो गोत्रमेव केवलं भजन्ते न रिक्थम् । पूर्वे तु रिक्थभाजो
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